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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४३५

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उड़ते रहने की क्रिया के समान है । जव स्मृतियां निःश्वासों से आन्दोलित हो उठती हैं तो आंसू की एक द स्वयं आँख से बाहर आ जाती है। प्रेम की मधुर पीड़ा वास्तव में प्रेम-कोटि की अन्तरंग अनुभूति थी परन्तु उसके बहिरंग में मन बहलाने की क्रीड़ा ने उम प्रेम की स्थिति में भी मद और मोह की सृष्टि कर दी क्योंकि स्मृतियां किसी अशरीरी की होने के स्थान पर शरीरी की भी हुआ करती हैं। जटाएं बढ़ने पर मनुष्य का आत्मा को ओर ध्यान जाना और हरे भरे संसार में धूल उड़ने लगना, यह दोनों बाते विरक्ति के सूचक है, परन्तु यह किसकी विभूति है जिसने जीवन की जटिल समस्याओं के होते हुए भी मन को आर्त करने के स्थान पर स्मृतिजन्य आसक्ति से विरक्त कर दिया। हृदय भी लौ की भॉति जल-जलकर स्नेह के दीपक मे प्रकाश भरता है। उस प्रकाश में अब तक का आसक्तिजन्य अन्धकार अब केवल धूम रेखा तक सीमित रह गया है और अन्धकार की तो अब केवल स्मृति ही शेप है। किंजल्क जाल (कमल कलिकाओ) से तात्पर्य रात के समय कली के रूप में दिखाई पड़ने वाले बन्द कमल मे जान पड़ता है। जल के ऊपर इस प्रकार के अनेक किंजल्क जाल बिखरे हुए है और ओस या वायु की आर्द्रता से बचे रहने के कारण उनका रूखा पराग भीतर ही भीतर आन्दोलित होकर रह जाता है। हम मानवों का स्नेह वह कमल है जो हृदय सर मे ही विकास करता और सूख जाता है । ध्यान रहे कि यहाँ प्रेम शब्द का नहीं, स्नेह शब्द (गरीरी प्रेम) का प्रयोग किया गया है। मानवीय स्नेह शीतल और सुरभित पायु के समान है जो मलय गिरि के चन्दन की शीतलता और सुरभि लेकर आता है। परन्तु जब उस स्नेह का स्पर्श केवल एक बार छूकर अदृश्य हो जाता है तो ऐमा लगता है जैसे किसी की करुणा ने एक बार कटाक्षपात तो अवश्य किया था परन्तु उधर स्नेह स्पर्श अदृश्य हुआ और इधर उसकी आँखों की कोरें घूम गयी। स्नेह का स्पर्श स्थायी नहीं होता और फलतः मानव के प्रति मानव की करुणा भी ऑग्वं फेर लेती है । आंखों के लिए रूप उतना ही अनिवार्य है जितना मछली के लिए जल । आँखों को रूप का दर्शन हुआ परन्तु उस समय जब प्रेम के अथाह गर्भ मे सम्भावित वियोग की वैसी ही अनुभूति हुई थी जैसी बडवाग्नि से समुद्र में होती है। स्पष्ट है कि खौलते जल की भांति रूप भी विकल कर देनेवाला ही सिद्ध होता है। यहाँ प्रेमसिन्धु से तात्पर्य रूप की आध्यात्मिक दृष्टि मे है और यह मानव देह की दुर्बलता है कि वास्तविकता ज्ञात होने पर भी मनुष्य को सम्भावित वियोग के ताप का अनुभव होता है। संस्मरण पर्व : १३१