पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४१

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गोरखपुरी पैसे) बेचकर पांच-सात हजार रुपये बन जाते और बड़ी आसानी से काम हो जाता था। वह मुकदमा २-३ वर्ष अदालत में चला और लाखों रुपये खर्च हुए। घर का जवाहरात, सोना और चांदी अनाज के भीतर छिपाकर बाहर सम्बन्धियों और मित्रों के यहाँ रखने के लिए भेजा गया, जिसमें हिस्सा लगने पर उसका बंटवारा न हो सके ! व्यवसाय सब सम्मिलित था। चाचा-भतीजे सब दूकान पर बराबर जाते। घर में मिले हुए थे, किन्तु अदालत मे लोग एक-दूसरे के विरुद्ध लड़ते रहे। यह ठीक महाभारत के युद्ध जैसा आदर्श सामने रखा गया था ! शम्भुरत्न जी जब दूकान जाते तो पचीसों गुण्डे उनकी ताक में बैठे रहते, किन्तु उनका व्यक्तित्व इतना विशाल था कि किसी को कभी यह साहस नहीं होता था कि उन पर आक्रमण करे। प्रसाद को दूकान सहेज कर शम्भुरत्न चले जाते थे। उधर से अमरनाथ और भोलानाथ भी उनके साथ दूकान पर बैठते थे। जब कभी कोई बड़ा ग्राहक आता तो रुपयों के लिए इन लोगों का आपस में द्वन्द्व हो जाता था। मालिकों को लड़ते देखकर नौकर-चाकर बीच-बचाव कर देते थे।' ___ अन्त में पंचों के निर्णय के अनुसार अदालत ने शम्भुरत्न का ही अधिकार स्वीकार किया । कुछ दिनों तक रिसीवर द्वारा ही मब काम होता था। शम्भुरत्न के हिस्से में दूकान के साथ सब कर्ज भी पडा। नकद और अन्य सम्पत्ति में बराबर के चार हिस्से हुए हुए। ऐसे वातावरण में भी प्रसादजी का जीवन वैभवशाली था। १२ वर्ष की अवस्था से १७ वर्ष की अवस्था तक प्रसादजी बराबर अखाड़े में कुश्ती लड़ते रहे । उनसे लड़ने के लिए दो पहलवान छोडे जाते थे। वे एक हजार दण्ड-बैठक लगाते थे। उस समय १८ गायें घर में बंधी रहती थीं, दूध का का काफी प्रबन्ध था। प्रसादजी स्वयं बतलाते थे कि कसरत के बाद वे डेढ पाव बादाम की गुद्दी छान जाते थे। प्रसादजी के शरीर की ओर विशेष ध्यान दिया जाता था। इसका प्रमुख कारण तो आत्मरक्षा ही था, क्योंकि उस समय सब तरफ मे आक्रमण की आशंका थी। कसरत के अतिरिक्त प्रसादजी को टमटम हांकने का भी शौक था। शम्भुरत्न जी के समय मे तीन घोड़े थे। उनकी वेलर की जोड़ी नगर में दर्शनीय समझी जाती थी। १. दूकान पर कोई द्वन्द्व नही होता था । अवलोक्य-ठीक ऊपर की पंक्तियाँ। (सं.) २. पहले तीन पक्षों का विवरण देने के बाद यहाँ चार हिस्से की बात कैसी? (सं.) ३. तीन उनके निजी थे और भी चार रहे जिनका व्यवहार सब करते थे। (सं०) संस्मरण पर्व : १३७