पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४३

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सम्पत्ति है । मेरी कोई व्यवस्था कर दीजिए। अब मे बाजार में बैठकर व्यवसाय नहीं करना चाहती।' प्रसादजी चुपचाप उसकी बात सुनते रहे। वे इस स्थायी झंझट में नहीं फंसना चाहते थे। इसमे कोई सन्देह नही कि प्रसादजी का आकर्षण उसके प्रति था। वह सुन्दरी थी और सरल भी। स्पष्ट शब्दो मे न कहकर दूसरे प्रयत्नों से प्रसादजी उससे अलग हुए। प्रसादजी युवावस्था मे ही दृढ प्रकृति क पुरुप थे। वे भावावेश मे किसी के कब्जे में नही फॅमना चाहते। इस तरह की स्त्रियो के सम्बन्ध में उनका अपना एक निजी मत था। वे कहते थे कि ऐमी स्त्रियाँ फुल मुघी (चिडिया) की भांति होते हैं, वे फूल सूंघकर ही जीवन व्यतीत करती है। पिजडे मे रखने पर निश्चय वह अपना प्राण छोड़ बैठेगी ! __प्रसाद किसी रत्री के प्रेम-बन्धन मे नही बँध मकते थ । मुझे समझाते हुए उन्होंने अनेक बार कहा था कि कभी किसी के बन्धन मे पडना । अन्यथा, उमी दिन तुम्हारी स्वतंत्रता ममाप्त हो जायगी और अपनी मौलिकता खो बैठोगे। नारियल बाजार की दुकान पर जब हम लोग बैठने तो कार खिड़कियों में से वेश्याये देखती। हम लोग सब आपम में बात करते रहते। हमी-दिल्लगी और माहित्य-चर्चा में समय कटता। प्रमाद तुद कुछ न कहकर अपनी बातों को दूसरे व्यक्ति द्वारा कहलाते । कभी-कभी ऐसे अनभिज्ञ बन जाते, जैसे कुछ जानते ही नहीं ! आँखें और मह मिकोडकर ऐसी मुद्रा बनाते कि हसी आ जाती। दूकान के सामनेवाले मकान में एक किशोरी बाई रहती थी। वह नाटे कद की मोटी औरत थी। वह बदी सीधी थी, ठोक पीटकर वेश्यावृत्ति मे लायी गई थी। देखने मे सुन्दर भी नही थी, इसलिए ग्राहको का भी अभाव था। प्रतिदिन वह चुपचाप हम लोगो की वाते सुना करती थी। ऐसा प्रतीत होता कि दूर रहते हुए भी हम लोगों की चर्चा में वह भाग लेती रहती। उसके सकेत और मुस्कान इसका समर्थन करते थे। एकान्त पाकर कभी बोल भी देती थी। प्रसादजी को वह बहुत दिनों से चाहती थी, किन्तु उमका कोई प्रयत्न मफल नहीं हुआ। प्रसाद बातें कर १ वस्तुतः श्रीशम्भुरत्न के जीवनकाल में वे उसम रहती थी। उनके निधनोपरान्त विरक्त होकर वृन्दावून जाने का निश्चय पूज्य पिताश्री से बताया और अपने आभूषणों की पेटी यह कहकर कि यह अपनी चीज सहेजो मेरे प्रवास का प्रबन्ध करा दो उत्तर मिला कि आपके निश्चय का पालन होगा किन्तु अब यह आपकी सम्पदा आपही के पास रहेगी। वैसा ही हुआ। २. दूकान के सामने मस्जिद है। संस्मरण पर्व : १३९