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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४४४

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लेते, हंसी-मजाक हो जाता। प्रत्यक्ष आने-जाने की कोई घटना न घटती, इससे वह निराश हो गई थी। उस दिन देर तक रात मे हम लोग दूकान पर बैठे थे। वह उदास थी। प्रसाद ने मुझसे कहा-पूछो, आज सुस्त क्यो है ? मैंने पूछा। वह चुप थी। इसके बाद प्रसाद की ओर गूढ दृष्टि से देखते हुए उसने कहा-खुद आप तो पूछ नही सकते और न किसी के सुख-दुख मे साथ दे सकते है । उसका यह व्यग्य सुनकर प्रसाद खिल उठे। कहने लगे-अब मैं किसी लायक नही हूँ ! वह खिडकी पर खड़ी हो गई । मेरी ओर सकेत करते हुए उसने उनसे कहाआप नही आ सकते तो क्या यह भी नही आ सकते ? इतनी स्पष्ट बाते कहने में उसके साहस पर मैं चकित था। मैंने कहा - धन्य हो देवि । जब तुम मेरे गुरु की ओर दृष्टि डाल चुकी हो, तो फिर मेरे लिए कल्पना करना कितना बड़ा पाप है । वह मौन हो गई। उसके भाव से मालूम पड़ा कि उसके शास्त्र मे पाप-पुण्य की व्याख्या भिन्न प्रकार से होती है । दूकान के सामने चौथी खिडकी सिद्धेश्वरी बाई की पडती थी । वह खिडकी पर बहुत कम बैठती थी । सगीत की गुणी होने के कारण उसे अवकाश कम मिलता था। उसके सगीत की ध्वनि बराबर सुनाई पडती थी। उसकी आवाज मे दर्द था जो हम सभी को पसन्द था। घर पर उसे बुलाकर अनेक बार हम लोगो ने उसका गाना सुना था । 'उग्र' ने उसी तरह की एक घटना का वर्णन किया है "जयशंकर की चर्चा मे सिद्धेश्वरी का भी नाम आने से चमकेगे बनारसवाले । मगर मेरे विचार मे, कलावन्तो की जाति नही, धर्म नही, लिंग नही। कबीर की कला मे मग्न हो जाने पर यह नही भास होता कि कलाकार जुलाहा, जन्म से कुल-शील-हीन है । मीरा के गीत जब सीने मे छा जाते है, सरस बरसते है, तब पता नही चलता कि गानेवाला मर्द है या औरत । कवियो की पक्ति मे जहां ब्राह्मण 'तुलसी' है, वहीं चमार रैदास' भी सहज भाव से डटा हुआ है। कवि क्या नही करता, वेश्याएं भी क्या नही करती, पर जितनी घृणा हमारे मन मे वेश्याओ के लिए है, कवियो के लिए उतना ही प्रेम है ! फिर भी, कवि किसी को वेश्या शायद ही बना पावे, पर वेश्या अकसर कवि के निर्माण का कारण हुई। अपने चरित्र के मिथ्या दम मे, पिछले दिनो समाज ने वेश्या से भौतिक लाभ उठाकर भी उसे दैविक, आध्यात्मिक आदर्शों की तरफ आकर्षित नहीं किया। अगर १४० : प्रसाद वाङ्मय