पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४५४

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प्रसादजी इस तरह के द्वन्द्व के अभ्यस्त थे। मैं पहले ही लिख चुका हूँ कि धेर में पट्टीदारो मे झगडा चलता रहा, लेकिन देखने में प्रत्यक्ष रूप से कोई कुछ समझ न सकता था। ठीक वही क्रम प्रत्येक स्थान पर उनके जीवन मे चलता रहा। राय कृष्णदासजी, मैथिलीशरणजी और प्रसादजी दोनो के अन्तरग मित्र थे। वे दोनो की प्रतिभा की प्रशसा करने । उनके यहां गुप्तजी आते । प्रसाद रायसाहब के यहाँ बराबर जाते । गुप्तजी से घटो बाने होती । गुप्तजी प्रसाद के यहां आते। तीनो साथ मे बातचीत, हंसी-मजाक, जलपान और भोजन करते, लेकिन देखनेवाला कभी स्वप्न मे भी कल्पना नही कर सकता था कि मन मे दोनो महाकवियो के प्रतिद्वन्द्विता छिपी है । प्रेमचन्दजी ने प्रसाद के नाटको के सम्बन्ध मे लिखा था- गडे मुर्दे उखाडना है।' किन्तु सामने आने पर अत्यन्त मैत्रीपूर्वक वह बाते करते। प्रसाद के इतनी सहनशक्ति होना बहुत कठिन है । अपनी नीति के कारण आगे चलकर उनके प्रतिद्वन्द्रियो को पराजित होना पड़ा और अन्त मे समझौता हुआ। मेरा स्वभाव ठीक इसके विपरीत था। मैं सहन नहीं कर सकता। एक बार मैं बनारस से बाहर गया था। प्रसादजी के एक अन्तरग मित्र ने मेरे छोटे भाई से मेरी निन्दा करते हुए समझाया कि वह अपना हिस्सा मुझ से अलग कर ल, नही तो एक दिन घोर सकट मे पडेगा | क्योकि सब सम्पत्ति मै फंककर नष्ट कर दूंगा। मेरे छोटे भाई ने उत्तर दिया-आप भैया और प्रसादजी के मित्र है, इसलिए मैं कुछ नहीं कह सकता। यदि दूसरा कोई इस तरह कहता तो मेरे उत्तर को वह जीवन भर न भूलता । ___ अन्त मे नम्रतापूर्वक उन्होने उमसे कहा कि ये बाते मेरे आने पर प्रकट न हो । जब मैं आया तो उस घटना का विवरण मुझे मिला। मैंने प्रसादजी के सामने, तीखे शब्दो से उनक मित्र का 'सम्मान' किया। प्रसादजी मेरी प्रकृति से परिचित थे । कही इसका रूप और बढकर भीषण न हो उठे, यह ममझकर वे उमी रात अपने मित्र के यहां जाकर कुछ कह आये। दूसरे दिन प्रात काल उनके मित्र मरे यहाँ आये। मैं मोया था। जगने पर मालूम हुआ कि अमुक सज्जन आये है। सामना होने पर मैं बडे ध्यान से उनकी ओर देख रहा था। उन्होने कहा- मैं कुछ न कहकर केवन आपसे क्षमा चाहता हूं। उनके आने से ही मेग क्रोध शान्त हो गया था। मैंने क्षमा कर दिया । प्रमादजी की दूरदर्शिता को मैं समझ गया था। दोनो अभिन्नों मे खटपट की परिस्थिति में वे किसका माथ देगे । उमे बचाने के लिए ही उन्होने ऐसा किया था। यहाँ उनके 'ऑमू' की ये पक्तियां याद आती है - हो उदामीन दोनो मे, सुख-दुख म मेल कराये, ममता की हानि उठाकर, दो रूठे हए मनाये । १५० : प्रसाद वाङ्मय