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वहाँ नहीं गया। उनके प्रति मन दुखी हो चुका था। ऐसा कभी नही होता था कि बनारस में रहकर किसी दिन उनसे भेंट न हो। एक सप्ताह के बाद प्रसाद मेरे यहां आये । मैं नीचे अपने बड़े कमरे में बैठा था। छोटे कमरे में बैठते हुए उन्होंने कहा-जरा यहाँ आइयेगा? मैं उनके सामने बैठ गया। दोनों को आकृति बिगड़ी हुई थी। मिर नीचा किये कुछ देर वे चुप बैठे रहे । मैं दूसरी ओर देखता रहा। उन्होंने कहा-देखिये, मैं एक बात आपसे कहना चाहता हूँ......"मैं उनकी ओर देखने लगा। उन्होंने कहना आरम्भ किया--अपने जीवन में मैं इमकी कभी चिन्ता नही करता कि कोई मुझमे प्रमन्न हो अथवा रुष्ट हो; लेकिन आपको मैने अपना आत्मीय ममझा, अपने छोटे भाई की तरह मानता रहा। इसलिए मेरे-आपके दिल में यदि कोई अन्तर पड गया हो तो उसे साफ कर लेना चाहिये । मैं उनकी बातो पर विचार करता रहा। कुछ देर बाद मैंने कहा-वह अब साफ नही हो सकता ! उन्होंने अन्तिम बार पूछा-- साफ नही हो सकता ? मैंने कहा-नही । वे आवेश मे छड़ी उठाकर उठे और चले गये । मेरे हृदय में विस्फोट हो रहा था। इस समस्त विश्व मे कोई अपना नही हैप्रति क्षण मैं यही अनुभव कर रहा था। जिसके ऊपर पूरा विश्वास करता था, जिमकी आज्ञा और संकेत पर बराबर चलता रहा, उससे ऐसी आशा नहीं थी। मैं महीनों घर से बाहर नहीं निकला। क्योंकि प्रसादजी को छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नही था, जहाँ मैं जाता। ___ यह आघात इतना भीषण था कि जीवन पर्यन्त फिर वैसा अनुभव मैंने नहीं किया। पं० वाचस्पति पाठक कभी आते तो प्रसाद का समाचार मिलता। उन्होंने भी बहुत प्रयत्न किया, मुझे बहत समझाया; लेकिन मैं अपने विचार पर अटल था। मैंने पाठक से कहा-मैं चाहता हूँ कि तितली के फर्मे उनके यहां भेज दो ! ___सम्भवतः यही बात वे लोग भी सोच रहे थे ! पाठकजी के प्रयत्न से 'तितली' के फर्मे उठकर भारती भण्डार चले गये । लागत से भी कम पैसे उसके मिले । जहाँ इतनी बडी हानि हो चुकी थी, वहां पैसों का प्रश्न ही क्या ! लेकिन नहीं क्यों, इसी पैसे के प्रश्न में ही तो सब कुछ बंधा हुआ था। संस्मरण पर्व : १५५