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हैए भी, अपने स्वाभिमान के कारण कोई आर्थिक लाभ उनके द्वारा नही उठा सका। लाभ ही क्यो, मुझे पर्याप्त हानि भी उठानी पड़ी। प्रसादजी को पत्र-पत्रिकाएं निकालने की बड़ी लालसा रहती थी। जब किसी नवीन पत्रिका के प्रकाशन की चर्चा छिडती, तब वे बड़े उत्साह मे उसकी प्रत्येक बात पर ध्यान देते-कितनी छपेगी ? कागज और छपाई का हिसाब बनने लगता। उनकी इसी प्रवृत्ति के कारण 'इन्दु का जन्म हुआ और उन्ही की प्रेरणा से 'जागरण' और 'हस' प्रकाशित हुए थे। इन तीनो पत्र-पत्रिकाओ को उनका हार्दिक सहयोग प्राप्त था । बहुत कुछ मैटर वही प्रत्येक अंक के लिए स्वयं प्रस्तुत कर लेते थे। उन्ही के आदेशानुसार पत्र की नीति और 'स्टैन्डर्ड' निश्चित होता था। प्रत्येक अंक को वे बडी मावधानी से देखा करते थे और एक-एक फार्म की बडी उत्सुकता से प्रतीक्षा करते थे। प्रसादजी ने अपनी समस्त पुस्तको का अधिकार मुझे दे दिया था। जो पुस्तके भारती-भण्डार द्वारा प्रकाशित हो चुकी थी, उन्हे छोडकर जो कुछ आगे वे लिखते, वह सब मै ही प्रकाशित करता - ऐसा उन्होने वचन दे दिया था। इसी बल पर मैंने पुस्तक प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। पुस्तक-मन्दिर' की स्थापना हुई। 'एक घंट' और 'आधी' मैं प्रकाशित कर चुका था और उपन्यास लिखने के लिए प्रसाद से मेरा विशेष आग्रह था। 'जागरण' मे 'तितली' उपन्यास वे धारावाहिक रूप से लिखते रहे । धीरे-धीरे उपन्यास समाप्त हो जायगा इसी तरह नियमित क्रम से वे लिखते भी रहेगे-ऐसा मेरा विश्वास था। . पाक्षिक जागरण के १२ अक निकले । ६ मास में ही चारो ओर से सकट का सामना करना पडा । 'जागरण' बन्द हुआ। 'तितली' के फर्मे पुस्तक रूप मे छप चुके थे, केवल कुछ अश बाकी था। महीनो, प्रतिदिन अनुरोध और आग्रह का परिणाम कुछ न हुआ। प्रमादजी ने उस ओर ध्यान नही दिया। सदैव बीमारी और लाचारी का बहाना कर टालटूल करते रहे । महीनो बीते। मैंने देखा कि अब उपन्यास पूरा होता नही दिखाई पडता। उधर श्री राय कृष्णदास से प्रसाद की कोई दूसरी स्कीम चल रही थी। एक दिन कुछ उखड़े स्वर मे मेरी-उनकी बातचीत हुई। वे बाहर चौकी पर बैठे थे। घन्टो इधर-उधर की बातो के बाद जब मैंने कहा-तितली को पूरा कर दीजिये, बड़ी हानि हो रही है !........ उन्होने कहा -क्या "तितली' के लिए मैं अपनी जान दे दूं। मैं एक शब्द भी न बोला । चुपचाप वहां से चला आया। कई दिनों तक उनके १५४ : प्रसाद वाङ्मय