रहने के लायक एक नया मकान भी उन्होंने बनवा लिया था। उनकी समस्त पुस्तकों के प्रकाशन की व्यवस्था भी लीडर प्रेस से हो चुकी थी। सुर्ती के व्यवसाय का कार्य भी अच्छे ढंग से चल रहा था। अपने एक सम्बन्धी उमाप्रसाद के ऊपर रोजगार का भार उन्होंने दे दिया था। उमाप्रसाद बहुत ईमानदार व्यक्ति हैं और अब तक अपना कर्तव्य-पालन कर रहे हैं। अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के विचार से वे कभी भी व्यर्थ खर्च नहीं करते थे। ऐसे रोग में लाखों खर्च हो जाता है; किन्तु प्रसाद अपनी बीमारी में अधिक खर्च नहीं करना चाहते थे। इसके दो कारण थे। एक तो-'जो होना होगा, वही होगा '-उनका सिद्धान्त; और दूसरे, अधिक खर्च हो जाने पर सन्तान को संकट का सामना करना पड़ेगा। ९-१० महीनों तक होमियोपैथिक चिकित्सा होती रही। उनकी जर्जर अवस्था देखकर मुझे एक दिन क्रोध आ गया। मैंने कहा-इस तरह एक साधारण चिकित्सक के चक्र में इतना समय बीत गया, कुछ लाभ न हुआ। पह ठीक नही! मैंने उनसे अपने गंगा-तटवाले मकान में अथवा किसी 'सेनिटोरियम' में चलने का आग्रह विगा। उन्होंने कुछ न माना । वे किसी का एहसान लेना नहीं चाहते थे। बीमारी की अवस्था मे उन्हे अनेक कटु अनुभव हुए थे। मरने के दो-तीन सप्ताह पहले, एक दिन मेरी ओर वे बड़े ध्यान से देख रहे थे । कुछ बोलना चाहते थे । मैं उनकी ओर देख रहा था । उन्होंने बड़े क्षीण स्वर मे कहा-तुम्हारा सिद्धान्त ठीक है ! मैंने कहा-क्या ? 'यही खाओ, पिओ, मस्त रहो'-उनकी वेदना स्वयं खड़ी होकर बातें कर रही थी। मैंने कहा-आप उसे ठीक समझते है ? हूँ-कहते हुए वे मौन हो गये। प्रसाद का जीवन अपनी स्थिति ठीक करने में ही बीत गया। सब व्यवस्थित हो जाने पर वे अपनी अभिलाषाओं को पूर्ण करेगे। उनके मन के किसी कोने में यह लालसा छिपी बैठी थी। मनुष्य सोचता कुछ है और विधाता करता कुछ और है ! उनके जीवन के सुनहले स्वप्न सोते ही रह गये, जाग न सके । 'मेरे सिद्धान्त ठीक हैं'- इसका प्रमुख कारण यही था । खा-पी कर मस्त रहना, कल क्या होगा-इसकी चिन्ता न रखना ही जीवन का वास्तविक अर्थ है ! बौद्ध ग्रन्थों का प्रसादजी ने विशेष रूप से अध्ययन किया था। उनकी रचनाओं में निराशा की झलक दिखाई पड़ती है। जीवन में दुख और कष्टों की विवेचना करने में वे अधिक तन्मय हो जाते थे। बौद्ध दर्शन का काफी प्रभाव उन पर पड़ा था। संस्मरण पर्व : १६१
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