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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४६६

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प्रसाद 'आनन्द' के उपासक थे। उनके काल्पनिक आनन्द के दिन वास्तविक रूप मे आनेवाले थे। यही कारण है कि अपने रोग की भयंकरतम से परिचित होते हुए भी, जीवन के प्रति लालसा उनमे दिखाई पड़ती थी। दार्शनिक और विद्वान होते हुए भी, अन्त मे जब डॉक्टर कहता है कि आपको जो कुछ कहना हो तो कह दीजिये ! इस पर भी वे मुस्करा कर उत्तर देते हैं-कफ को दूर करने की दवा दीजिये ! क्या अभी कुछ कहना बाकी है ? तितली के प्रथम प्रसाद-मन्दिर-सस्करण (१९८५ ई०) की 'सूचना' मे उसके प्रथम प्रकाशन (१९३४ ई०) के आनुपूर्वी तथ्य बता चुका हूँ। चौह फार्म छपे थे जिस पर तीन सौ उनतीस रुपए छ आने हुए व्यय को भारती भण्डार से पाकर व्यासजी ने फर्मे उठवा दिए । ऐसी दशा मे हजारो रुपयो के नुकसान की बात कहने मे आक्रोश जनित अतिरंजना ही ध्वनित है। यह कहना सही है वे वस्तुतः चाहते थे कि हस, पुस्तकमन्दिर, सरस्वती प्रेस, भारती भण्डार सभी को एक मे मिलाकर लिमिटेड कपनी का रूप दिया जाय- और व्यासजी उस कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर बनाए जाय-यह योजना यदि व्यासजी को स्वीकार्य होती तो उन्हे इस बात का पश्चात्ताप न झेता कि नन्ददुलारे जी, पाठकजी, जिज्जाजी आदि की उन्होने लीडर प्रेस मे नियुक्ति करा दी और अपने सर्वाधिक कृपापात्र व्यासजी) के लिए कुछ नही किया। किन्तु, लिमिटेड कम्पनी मे पाई-पाई का हिसाब आडिट होता-जो व्यासजी की प्रकृति के प्रतिकूल था इसीलिए उन्होने स्वीकार नही किया, और एक बडी योजना साकार न हो सकी, ठीक उसी प्रकार जैसी अपने पुस्तको के प्रकाशन के सन्दर्भ मे-श्री अम्बिकाप्रसाद गुप्त और श्री मुकुन्दीलाल गुप्त के सम्मिलित उद्योग की कल्पना करते एक योजना उन्होने पहले वनाई थी और श्री अम्बिकाप्रसादजी ने उसे साकार नहीं होने दिया था। दोनो ही विशेष कृपापात्र रहे, किन्तु सकुचित स्वार्थवृत्ति ने दोनो को नष्ट किया-'अपने मे सब कुछ भर कैसे व्यक्ति विकास करेगा, यह एकान्त स्वार्थ भीषण है अपना नाश करेगा।' (कामायनी) -रत्नशंकर प्रसाद १६२ : प्रसाद वाङ्मय