पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४६७

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प्रसादजी की याद -राय कृष्णदास भारतेन्दु पत्र अगस्त १९०५ ई० से उदित होकर एक वर्ष तक निकलता रहा। किन्तु शैशवमरण हिन्दी पत्रों की पुरानी व्याधि है। जुलाई १९०६ ई० को अपनी बारहवीं संख्या के साप यह अस्त हो गया। उसके मई-जून वाले संयुक्त १०वी और ११वीं संख्या में प्रसादजी की एक रचना प्रकाशित हुई है जो उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित कविता है, उसका शीर्षक है 'सावन पंचक'। पहले चार पद्य रोला छन्द में है और पांचवां सवैया में। यह रचना ब्रजभाषा में है और उसमें उन्होंने अपना उपमाम 'कलाधर' दिया है । (अवलोक्य-प्रसाद वाङ्मय प्रथम खण्ड पृष्ठ २) प्रसादजी जब पढ़ने योग्य हुए तब उनका शिक्षाक्रम उनके पिता ने ऐसा रखा कि उन्हें संस्कृत, हिन्दी और उर्दू की अच्छी योग्यता हो जाय तथा साहित्यिक रुचि भी उबुद्ध हो जाय। उन्होंने अपने आरम्भिक पाठ स्वर्गीय मोहिनीलाल गुप्त से पढ़े। वहाँ भारतेन्दुजी के भ्रातृ-पुत्र ब्रजचन्द्रजी उनके सहपाठी थे। वह असमय में न चल बसे होते तो अच्छी साहित्यिक ख्याति प्राप्त करते । श्री लक्ष्मीनारायण सिंह 'ईश' भी वहीं उनके सहपाठी थे । प्रसादजी इस छोटी-सी पाठशाला को सदा अपना आरम्भिक सरस्वती-पीठ कहा करते । (श्री अम्बिकाप्रसाद गुप्त भी वहीं पढ़े थे। सं०) मोहिनीलालजी हिन्दी साहित्य शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे और स्वयं कविता भी करते थे। उनका उपनाम था 'रसमय सिद्ध कवि'। उन्होंने कई काव्य भी लिखे थे, जिनमें सबसे बड़ा है-'सिद्ध मनोरंजन'। यह बड़े आकार वाले सौ डेढ़ सौ पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। इसमें एक ओर काम क्रोध आदि और दूसरी ओर संयम, शान्त, तप आदि को पात्र बनाकर रूपकमय कथा कही गई है। प्रसादजी को उन्होंने हिन्दी और संस्कृति के साथ-साथ साहित्य शास्त्र की भी शिक्षा दी। यों वह बड़े कठोर शिक्षक थे, किन्तु प्रसादजी ने पर्याप्त समय तक उनसे काव्य रचना विषयक बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त किया। प्रसादजी की निमातृ प्रतिभा १९०६ ई. के भी कई वर्ष पहले से विकसित हो चली थी। प्रसादजी ने अपनी सर्वप्रथम रचना रसमय सिद्धजी के सामने की- हारे सुरेस, रमेस, घनेस, गनेसहूँ सेस न पावत पारे । पारे हैं कोटिक पातकी पुंज, 'कलाधर' ताहि छिनौलिखि तारे ॥ संस्मरण पर्व : १६३ -