१९०८-९ ई० तक तो उन्होंने पद्यपि बहुत कुछ लिख डाला था तथापि कहीं प्रकाशनार्थ नहीं भेजा था। उनका यही संकल्प था कि वह सब स्वतः प्रकाशित करेंगे। इस उद्देश्य से उन्होंने अपने भांजे स्व० अम्बिका प्रसाद गुप्त द्वारा अग्रवाल स्पोर्ट्स क्लब से यह अनुरोध किया कि क्लब 'भारतेन्दु' के पुनः प्रकाशन की अनुमति गुप्तजी को दे दे, किन्तु क्लब ने कुछ ऐसी शर्त रखी जिनका पालन सम्भव नहीं था। ऐसा याद पड़ता है कि इसी प्रसंग में प्रसादजी की कुछ चर्चा भी क्लब मे हुई थी, क्योंकि तब उनका साहित्यिक व्यक्तित्वं काशी में विदित हो चला था। प्रसादजी अनुमति के न मिलने से विशेष हताश हुए क्योंकि भारतेन्दुजी पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। तब उन्होंने प्रकाश्य मासिक पत्र का नामकरण 'इन्दु' किया। उन्होंने मुझसे स्वयं कहा था कि इन्दु को इन तीन उद्देश्यो मे आरम्भ कराया था-(१) अपनी रचनाओं का प्रकाशन, (२) अम्बिका प्रसाद गुप्त को साहित्यिक रुचि के उपयोग पूर्वक कुछ आर्थिक लाभ, (३) अपने सुर्ती के व्यापार का विज्ञापन । इस प्रकार श्रावण शुक्ल स० १९६६ (१९०९ ई०) से 'इन्दु' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। आरम्भ से ही 'इन्दु' का एक निजस्व रहा और उसने अपने को भारतेन्दु काल से शृंखलित किया यदि हम 'इन्दु' के प्रथम अंक को 'हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' के किसी अंक के साथ पढे तो यही जान पड़ेगा कि 'इन्दु' उसी परम्परा मे है । ई० १९११ में लगी इलाहाबाद प्रदर्शनी की सुखद स्मृतियाँ अन्तस मे संजोते वही बना रहा। वहाँ दारागंज में मेरी ननिहाल है। पूर्वी उत्तरप्रदेश गे वहाँ के बड़ी कोठी वालों को कौन नही जानता। उनकी तीन शाखाओं में ज्येष्टतमा मेरी ननिहाल । तीन घरों में केवल एक नाती मैं-क्या पूछना है मुझ पर लाड प्यार का। स्वर्गीय मामाजी को दारागंज अपना राजा मानता और मैं उनकी आंखों का तारा था। वनारस से बढ़कर इलाहाबाद मेरा घर था। निदान वहाँ जमा हुआ अपनी एक पुरानी अभिलाषा पूरी करने में प्रवृत्त था- अभिलाषा थी एक सचित्र साहित्यिक मासिक निकालने की। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उसका सम्पादन-भार ग्रहण किया, नामकरण हुआ- सरोज। प्रयाग में इण्डियन प्रेस तो था ही, ला जर्नल प्रेस भी उच्चकोटि का काम करने में उससे उन्नीस न था। परन्तु इन दोनों प्रेसो को 'सरोज' का मुद्रण न देकर दिया स्व० कृष्णकान्त मालवीय के अभ्युदय प्रेस को। वह सकारण था-एक तो उन्ही दिनों कृष्णकान्तजी ने 'सरस्वती' की प्रतिद्वन्द्विता मे 'मर्यादा' नामक सचित्र मासिक ही तब तक काम चला जब तक वह हेतु सभ्मुख नही नही आया-अर्थात देवि विन्ध्यवासिनी के द्वारा 'प्रसाद' शब्द का संकेत नही मिला (अवलोक्य कानन कुसुम की अवतरणिका)। (सम्पादक) संस्मरण पर्व : १६५
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