पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७०

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पत्रिका निकलनी आरम्भ की थी। अतः उनके पास तरह-तरह के उत्कृष्ट छपाई के कागजों के नमूने और उनके रियायती दर मौजूद थे, रंगीन और सादे ब्लाक बनाने वालों से उनका व्यावसायिक सम्पर्क था। सर्वोपरि बात यह थी कि उन्हीं दिनों प्रेस ऐक्ट का संशोधन हुआ था जिसमें सामयिक पत्रों से आर्थिक जमानत मांगने का अधिकार जिलाधीशों को दिया गया था जिससे 'सरोज' स्वभावतः बचना चाहता था क्योंकि वह राजनीति से रहित था। एतदर्थ कृष्णकान्तजी ने मुझे निश्चित कर दिया था। 'सरोज' के लिए स्व. पं० बालकृष्ण भट्ट, आचार्य द्विवेदीजी, गो० किशोरीलाल, मु० देवीप्रसाद, गुलेरीजी आदि के लेख तथा पं० श्रीधर पाठक की 'वनाष्टक' नामक कविता प्राप्त हुई। अन्य अग्रगण्य साहित्यिकों का भी योगदान था। प्रथम अंक का मुखचित्र था-अवनीन्द्रनाथ अंकित 'मानस सरोज' के वराटक पर नाचते नवनीतधारी बालकृष्ण। इस पर पत्र द्वारा राष्ट्रकवि मैथलीशरण से कविता की याचना की। पत्र-व्यवहार द्वारा उनसे परिचय हुआ जो क्रमश: आजीवन बन्धुत्व में परिणत हो गया। उन्होंने मुखचित्र विषयक एक अष्टक लिख भेजा जिसकी आरम्भिक पंक्तियां थी- जै भक्त मानस सरोज निवास-कारी। लीलामृते सगुण-निर्गुण रूपधारी ॥ प्रसादजी की रचना प्राप्त करने के लिए भरे जेठ महीने में प्रयाग से काशी आया। छह साढ़े छह महीने पर बन्धु मिलन का आनन्द उनका 'सरोज' के प्रति समुत्साह देखकर द्विगुण हो उठा। उन्होंने उसके लिए यह चतुर्दशपदी तैयार कर दी- अरुण अभ्युदय से हो मुदित मन, प्रशान्त सरसी में खिल रहा है। प्रथम पत्र का प्रसार करके, सरोज अलि-गन से मिल रहा है। गगन में सन्ध्या की लालिमा से, किया संकुचित बदन था जिसने । दिया न मकरन्द प्रेमियों को, गले उन्ही के वो मिल रहा है ।। तुम्हारा विकसित बदन बताता, हंसे मित्र को निरख के कैसे। हृदय निष्कपट का भाव सुन्दर, बदन पे तेरे उछल रहा है ।। निवास जल ही में है तुम्हारा, तथापि मिश्रित कभी न होते। मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे, सु-पाठ तुमसे ये मिल रहा है। उन्हीं तरंगों में भी अटल हो, जो करना विचलित तुम्हें चाहती। 'मनुष्य कर्त्तव्य में यों स्थिर हो', ये भाव तुम में अटल रहा है । तुम्हें हिलावे भी जो समीरन, तो पावे परिमल प्रमोद पूरित । तुम्हारा सौजन्य है मनोहर, तरंग कहकर उछल रहा है । तुम्हारे केशर से हो मुगन्धित, परागमय हो रहे मधुव्रत । 'प्रसाद' विश्वेश का होवे तुम पर, यही हृदय से निकल रहा है । १६६ :प्रसाद वाङ्मय