पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७७

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। उसने अपना नामकरण भी कर लिया-पूर्णिमा। सचमुच पूर्णिमा की रूपराधि पूर्णिमा के ही तुल्य थी। इन दोनों बहनों को काशी में रहकर अपनी कला और विधा सम्वद्धित करने की इच्छा हुई और जायसवालजी ने मेरे नाम परिचय-पत्र देकर यहाँ भेज दिया। यह सन् १९१३ के आरम्भिक महीनों की बात है। वे यहाँ 'होटल-डी-पेरिस' में ठहरी और नित्य मेरे यहां आना-जाना, मिलना-जुलना होने लगा। वह उम्र ऐसी थी कि सुजान और मैं एक दूसरे के प्रति बहुत आकृष्ट हुए । प्रसादजी से मेरा कोई पर्दा न था, अपनी भावात्मकता का इजहार भी उनसे किया करता । फिर वह दिन आया जब वे दोनों बहनें कलकत्ता लौट गई। इसके उपरान्त प्रसादजी ने 'बिदाई' शीर्षक से बारह दोहों में एक कविता लिखी जो 'इन्दु' कला ४ खण्ड २ में पृष्ठ सं० ५६ पर प्रकाशित हुई। इनमें 'मनमानिक नीलाम करि' की ध्वनि यह है कि उन दिनों यूरोपीय प्रवासी जब भारत छोड़ते तब अपनी वस्तु कोड़ी के मोल पर नीलाम करके रुपया खड़ा कर लेते। यहां प्रसादजी ने मेरे हृदय की वही दशा प्रस्फुटित की है। अन्तिम दोहा भी बहुत ही भावपूर्ण है, वह भी मेरी मनोदशा का सुन्दर चित्रण है । सुजाननले जाने पर वह प्रायः मुझ पर फब्ती कसा करते -'हाय, तुम उस पार मैं इस पार, बीच में अपार पारावार ।' उनका यह मनोविनोद कुछ समय तक चलता रहा। तभी मैंने 'उपवन' नामक अपनी कविताओं का संग्रह मुद्रित कराया जो पेपर कवर में पुस्तकाकार तैयार होकर भी प्रकाशित नहीं हुआ। इसका समर्पण भारती पूर्णिमा को ही है । प्रसादजी इसे ताड़ गये और मुझे समर्पण वाले छन्द के आद्याक्षर दिखाते हुए अपनी रहस्यमयवाणी में कहने लगे-'अच्छा "।' इतना ही नहीं वह अक्सर मुस्कराते हुए लम्बी सांस लेकर मुझे सुनाते-'हाय, तुम उस पार, मैं इस पार ।' उस विछोह में 'उपालम्भ' शीर्षक एक कविता भी लिखी थी जो 'इन्दु' में और पुन: 'उपवन' में निकली। इसके कुछ दिन बाद प्रसादजी की फुटकर कविताओं का प्रथम संग्रह 'कानन कुसुम' प्रकाशित हुआ। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस संग्रह की 'समर्पण' शीर्षक कविता में 'उपवन' शब्द मुझसे छेड़छाड़ के लिए ही रखा गया था। जब इसका रस वह ले चुके तब उपवन शब्द के ऊपर एक छपी हुई चिप्पी लगवा दी जिसमें 'उद्यान' शब्द को उपवन का स्थान दे दिया गया । १९०९ ई० से प्रसादजी के अवसान तक मैंने उन्हें निकट से निकट तक निरखा है, उनके अन्तस् में पैठा हूँ। उनकी समूची गतिविधि से अवगत रहा हूँ। उनके हृदय का कोना-कोना मेरे लिए उन्मुक्त रहा है। इसी बूते पर उनके जीवन वाले उन लगभग १९१० से १४ का जो उनके खिलासी जीवन का अथ से इतिथी है, पथार्थ चित्र उरेहना अपना कर्तव्य समझता हूँ। बनारस की एक बिरादरी का पेशा है संगीत-गीतं वाचं तथा नृत्यं क्रीभिः संस्मरण पर्व :.१७३ .