कुन्दा' रख छोड़ा था। हम लोग इसी नाम से उसकी चर्चा करते और उसका रहस्य जानने को उत्सुक रहते । अब एक दिन ऐसा आया कि एक ग्रामीण महिला रूपवती युवती कन्या को लिए हुए वहां पहुंची और मबसे कहने लगी कि वह युवक उसका दामाद है और उसकी कन्या को छोड़कर गायब हो गया था, बहुत खोजते-खोजते यहां तक पहुंची। यद्यपि 'आबनूस का कुन्दा' सदैव नकारता रहा तथापि वह महिला अपनी बात पर अड़ी रही और सबसे बार-बार यही अनुरोध करती कि इन दोनों का मेल करा दें। इस विलक्षण परिस्थिति नै वातावरण मे एक रंगीनी ला दी किन्तु किसी का कोई वश न चला। प्रसादजी भी इस नाटकीय घटना को दिलचस्पी से देखते और मुस्कुराते रहे। एक दिन उन्होंने उस रहस्यमय युवक से कहा कि पहले तो तुम्हें 'आबनूस का कुन्दा' ही समझा था, किन्तु अब 'अगर की गांठ' भी मानने लगा। ज्ञातव्य है कि आबनूस और अगर नामक दोनों ही अत्यन्त सुगन्धित लकड़ियाँ घोर काले रंग की होती है जबकि अगर की सुगन्ध चन्दन को भी मात करती है । प्रसादजी की सहृदयता और प्रतिभा ही ऐसी मुन्दर तुलनात्मक उपमा दे सकती थी। वह रहस्यमय युवक जैसे प्रगट हुआ था वैसे ही एक दिन अदृश्य भी हो गया और वह रहस्यमयी युवती भी न जाने कहाँ चली गई-एक अधूरी कहानी का कुतूहल छोड़ कर। इसके महीने डेढ़ महीने बाद का हाल सुनाने के लिए हमें तीन बरस पहले चलना होगा-१९१० ई० के लगते भाई काशीप्रसाद जायसवाल विलायत से उच्च शिक्षा प्राप्त कर लौटे। उन्हें विद्यार्थी अवस्था से ही प्राच्य-विद्या से प्रेम था । इंग्लण्ड प्रवास में ही उनका साथ सावरकर सरीखे क्रान्तिकारियों से हुआ था फलतः उन्होंने भारतीय इतिहास और पुरातत्व सम्बन्धी पाश्चात्य दृष्टिकोण पर गम्भीर चिन्तन किया और पाया कि पश्चिमीय विद्वानों का दृष्टिकोण संकीर्ण तथा विपरीत पा जिससे हमारे पुरावृत्त का गलत आकलन उन्होंने किया है। अतः जायसवालजी ने भारतीय पुराविद्या के मूल्यांकन का नया मार्ग ढूँढ़ा जो राष्ट्रीय होते हुए सर्वथा निष्पक्ष था। इससे भारतीय पुरातत्व अनुसंधान को एक नई दृष्टि मिली और अन्य विद्वान इससे प्रेरित हुए। भारत लौटने पर उन्होंने कलकत्ता हाइकोर्ट में प्रैक्टिस भारम्भ की जहां उन्हें मात्र बैरिस्टर ही नहीं वरन प्राच्य-विद्या-विशारद का स्थान दिया गया। उन्ही दिनों फ्रान्स से दो सुन्दर युवती बहनें कलकत्ता आई, उनके पिता वहाँ व्यवसाय करते थे। बड़ी बहन चित्रकला विशारद थी और ठाकुर शैली में उसने 'इचिंग' का प्रशिक्षण आरम्भ किया। छोटी बहन को संस्कृन से प्रेम था और साधारण ज्ञान भी। भारतीय संगीत में भी उसकी प्रवृत्ति थी, उसने सितार भी सीखना आरम्भ किया। कलकत्ता के मनीषी समाज ने उन दोनों का स्वागत किया और छोटी बहन 'सुजान' को संस्कृत प्रेम के कारण 'भारती' पदवी भी प्रदान की। १७२: प्रसाद वाङ्मय
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