पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

पूछा। बरसों से जिसको वह मृत समझते थे उसे अचानक बीवित देखकर उनका चकित होना स्वाभाविक था। फिर वह अन्दर चली गई। प्रसादजी की कहानी 'चूड़ीवाली' की कल्पना उसी की परछाई है। प्रसादजी के इस जीवन के सम्बन्ध में जिन लोगों ने लिखा है वह वस्तुनिष्ठ न होकर आत्मनिष्ठ है- 'जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन्ह तैसी।' यहां तक कि एक लेखक ने तो उन्हें पंकलिप्त भी कर डाला है। इसी से मिलती- जुलती और गलत-फहमियां भी प्रचलित की गई हैं, यथा-प्रसादजी गाना सुनने के लिए कोठे पर जाया करते थे। इन सारी नितान्त मिथ्या जल्पनाओं ने मुझे हक्का- बक्का कर दिया है। मजा यह है कि प्रसादजी के जीवन वाले उस परिच्छेद के समय वे लोग न तो उनके सम्पर्क में आए थे न ही उस वय तक पहुंचे थे जिसमें आदमी दुनिया को देख-सुन-समझ पाता है । इतना अवश्य है-प्रसादजी की दूकान के उत्तरी ओर सटा एक छोटा-सा मकान था, जिसकी ऊपरी मंजिल में एक कोठा था। जिन जाहिर बाई का वह कोठा था वह अपने समय की एक ही गायिका थी-जैसा कण्ठ पाया था वैसी ही तालीम भी। रंगीन-गान तो बहुत रसीला गाती ही थी, पक्की चीज़ गाने में भी कमाल हासिल था। इधर कोठेवालियों पर बहुत कुछ लिखा गया है किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि उसमें रूप को वरीयता दी गई है, ऐसी स्थिति में गुण को नज़रअन्दाज कर देना स्वाभाविक है। जवाहिर बाई में रूप का सर्वथा अभाव था, तब भला वह क्योंकर उल्लेखनीय होती। जवाहिर बाई जवानी बीतने के पहले ही गत हो चुकी थीं। जिस समय की बात कह रहा हूं उनकी नौची उस कोठे पर बैठा करती। उसने कोठेवालियों का स्वभाव नहीं पाया था, किन्तु क्या करती, उस पेशे में लगा दी गई थी। सायंकाल जब प्रसादजी की साहित्यिक मण्डली उस मकान के सामने वाले तख्ते पर जुटती तब वह बड़े चाव से सारी साहित्यिक नर्चा और हास परिहास सुना करती और अपने को उस सहृदय समाज का सदस्य लेखती। कभी- कभी उस समवाय की अभ्यर्थना के लिए एक पुड़िया में इलायची बांधकर वासना- विहीन भावपूर्वक वही से प्रसादजी के उछंग में डाल दिया करती। वह विगत- विकार आभारपूर्ण दृष्टि से उधर एक बार देख भर लेते। तब, पुड़िया खोलकर इलायची अपनी मण्डली को बांटते और स्वयं भी खाते। कोई किसी तरह की फिकरेबाजी या आवाजाकशी न करता । यह क्रम तबतक चला जबतक वह उस कोठे पर रही। पीछे से उस जीवन से ऊबकर उसने घर कर लिया, वह घरनी होने के लिए ही जन्मी थी। १९१२ ई० के अन्तिम महीनों में मैंने भी अपने को एक फन्दे में फंसा दिया। एक ऐसा सम्बन्ध स्थापित किया जिसमें प्रेम का नाम भी न था, केवल वासना ही संस्मरण पर्व : १७५