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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८०

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वासमा थी, जिसके कारण मैं बिल्कुल असन्तुलित हो गया। मुझ पर जो भूत सवार था उसे प्रसादजी से कैसे छिपाता। उसी सिलसिले में एक दिन मुझे एक भाव सूझा, मैंने वह प्रसादजी को सुनाया और उनसे कहा कि इसे छन्दोबद्ध कर दो। उन्होंने तत्काल उसे एक निरनुप्रास कविता का रूप दे दिया। पढ़कर जब मैंने प्रसन्नता व्यक्त की तब उन्होंने केवल एक शब्द पर अंगुली रखकर कहा-'बस, इसमें मेरा इतना ही है।' सच पूछिए ती कविता का प्राण वही शब्द है, क्योंकि जिस पतिता को मैंने अपनाया था उसकी लस शब्द द्वारा पूर्ण अभिव्यक्ति हो जाती है । वह शब्द है-'पांसुला।' इसका अर्थ है-कूड़े-कर्कट में गिरी हुई। किसी तरह जुलाई-अगस्त १९१४ ई० मे उस नागपाश से मेरा छुटकारा हुआ, यद्यपि उसकी खुमारी उतरी कुछ दिनों बाद । बचपन से ही मलेरिया ने मेरे शरीर मे घर कर लिया था। १९१५ के मार्च में ज्वर मन्थर रूप में उभरा। मेरे डाक्टर ने चिकित्सा करके वह उपद्रव शान्त कर दिया, किन्तु सलाह दी कि तुरन्त किसी पहाड़ पर चले जाओ और अक्टूबर तक वही रहो, अन्यथा जुलाई लगते ही मलेरिया बहुत तंग करेगा। तदनुसार मैंने मंसूरी जाना निश्चित किया। वहा पहले भी तीन बार थोड़े-थोड़े दिनों के लिए जा चुका था। मुझे वह पहाड़ बहुत अच्छा लगता था। निदान वहां पर एक कोठी किराये पर ठीक करके अप्रैल में सपरिवार चला गया। और अक्टूबर बीतने पर काशी लौटा। मंसूरी कुछ ऐसी अच्छी लगी और स्वस्थ्य सुधरा जिसका ठिकाना नहीं। सो, मार्च १९१६ ई० मे वहां पर एक कोठी खरीद ली और गर्मी आरम्भ होते ही सपरिवार वहाँ चला जाता। कोठी काफी बड़ी थी, इस कारण मित्रों को भी बुलाकर महीनों वहाँ टिकाये रखता था। बडी इच्छा थी कि प्रसादजी भी वहाँ आएं, किन्तु उन दिनों उनकी प्रथम पत्नी का क्षय रोग इतना बढ़ गया था कि उनके लिए एक क्षण भी घर छोड़ना असम्भव था। जुलाई या अगस्त में भाई मैथिलीशरण लगभग एक महीने के लिए मंमूरी आए-साहित्यिक मनोरंजन का खूब समा रहा। उन्हें अपनी कई रचनाओं के प्रकाशनार्थ कागज खरीदने के सिलसिले मे कलकत्ता, कानपुर, बनारस की यात्रा करनी थी अस्तु वे अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थित हुए। कुछ दिनों बाद कलकत्ता के लिए मार्गस्थ भाई मैथिलीशरण ने बनारस से यह दुःसंवाद दिया कि प्रसादजी की पत्नी नही रही। उन दिनों बनारस में गंगाजी में बहुत बड़ी बाढ़ आई थी। वहां दशाश्वमेध घाट के पास गोदौलिया नामक प्रसिद्ध चौमुहानी है । बाढ़ का पानी करीब करीब चौमुहानी तक.आ गया था । मैथिलीशरण ने वही प्रसादजी को पिण्डदान करते पाया। जिस रात प्रसादजी की पत्नी का देहान्त हुआ, वह अपने मकान के सबसे बाहरी कमरे मे अकेले दुख मे निमग्न बैठे थे। किसी भी क्षण दुःसंवाद मिलने की १७६ : प्रसाद वाङ्मय