पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८७

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बातें। उनको कैसे समझा दूं तेरे रहस्य की जो तुमको समझ चुके हैं, अपने विलास को घातें ॥ इस प्रकार राजेन्द्रजी की उक्त सारगर्भित सूक्ष्म व्याख्या इन दो वाक्यों के साथ पूर्ण हो जाती है .- 'उक्त पंक्तियों की मीमांसा व्यर्थ है। उनके प्रकाश में आँसू के लक्ष्य, आराध्यदेव कौन है-सहृदयों के लिए खोज व रहस्य का विषय नहीं रह जाता।' आँसू के विषय में कुछ और भी उल्लेख्य है-आंसू की रचना १९२२ ई० में हुई जब प्रसादजी के मन में अपने प्रथम दाम्पत्य जीवन और द्वितीय दाम्पत्य जीवन की किसी दुखद स्मृति का कोई अवशेष न था। दूसरी पत्नी के जाने पर उन्होंने तीसरी बार घर बमाया, और उनके इस दाम्पत्य जीवन पर पहले के दोनो दाम्पत्य जीवनों की कोई उदास छाया कम से कम मुझे तो कभी न दीख पड़ी। बिल्कुल सामान्य दाम्पत्य जीवन चल रहा था और १-१-२२ को चि० रत्नशंकर के जन्म'ने यदि कही कोई दूरागत उदासी छिपी रही हो तो उसे भी निःशेष कर दिया था। आँसू की रचना उसके महीनों बाद हुई। अतः यह प्रश्न ही नही उठता कि उनके आँस पोछने के लिए भाई मैथिलीशरण ने कुछ देर गुनगुना कर यह पद बना दिया- जो घनीभूत पीड़ा थी मस्तक में स्मृति सी छाई । दुर्दिन मे आँसू बनकर वह आज बरसने आई ।। और, उनसे इसी राह पर चलने की स्वीकृति उपलब्ध कर ली। इस सम्बन्ध में यह भी कथ्य है कि मैथिलीशरण की पद-योजना सर्वथा भिन्न थी और उक्त शैली वाला उनका एक भी छन्द खोजे न मिलेगा। एक बात और उक्त छन्द में 'स्मृति सी' पद मात्र उपमान है, इसके अतिरिक्त उसकी कोई इयत्ता नही । अतः उस पर जो बहुतेरे उहापोह किये गये हैं-वे निरर्थक हैं । कुछ आलोचकों का यह कथन कि प्रसादजी पर रवि बाबू का प्रभाव है-सर्वथा अनर्गल है । यद्यपि प्रसादजी ने बंग भाषा सीखी अवश्य थी और उसका कुछ साहित्य भी देखा था, तथापि जब उन्होंने पाया कि मैं अपने लिए जो पथ बना रहा हूँ उससे बहक जाऊंगा, तब बंगला साहित्य का पढ़ना ही नही छोड़ दिया, उस भाषा को भी बिल्कुल भुला दिया। एक दिन मैंने प्रसादजी से कहा कि रवि बावू यहां एकान्त- वास कर रहे है, उनसे मिलने चलोगे। उन्होंने मेरा प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और मैंने कविगुरु को एक पत्र लिखकर इसके लिए समय मांगा। यह ९-१२-२२ की बात है। उन्होंने सन्ध्या का समय दिया। हम लोग वहां गए। प्रसादजी को उन्होंने बड़े प्रेम से लिया और जब मैने प्रसादजी का गुणगान किया तो वे प्रसन्न हो गए, किन्तु हिन्दी के सम्बन्ध में वह सदा उदासीन रहे । साहित्य के संस्मरण पर्व : १८३