पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८६

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नही।' खरीददार गर्जमन्द था, उसने सहर्ष इकरारनामा लिख दिया और प्रसादजी ने भी बैनामे पर साक्षी कर दी। प्रसादजी की व्यवहारबुद्धि का यह एक प्रतिनिधि उदाहरण है। १९२२ ई० में ही प्रसादजी और मैंने काशी के सभी मेले देखने का निश्चय किया। इसी सिलसिले में श्रावण की कजरी-तीज का मेला हमलोगों ने जगह जगह जाकर देखा और भरपूर आनन्द लिया। अगहन के पहले मंगलवार को 'प्याले' का मेला होता है जो पैगम्बर ख्वाजा खिज्र के सम्मान में होता है । बनारस में यह मेला बरना के तट पर चौकाघाट पर होता था। जब इसके देखने की पारी आई तब प्रसादजी ने कहा-'मैं न चलूंगा क्योंकि मेरे कुल मे इसमें सम्मिलित होना वजित है।' मैंने कहा-'चलो, हमलोग दूर से देखेंगे, मेले के पास नहीं जायंगे।' यह बात वे मान गये और इस प्रकार हमलोगों ने बहुत दूर से उस मेले का आनन्द लिया। जुलाई १९२२ ई० में उन्होंने केशवजी और मुझसे कहा --'इधर दस बारह दिन पहले एक नई चीज पूरी की है, जिसे तुमलोगों को अथ से इति तक सुनना है ।' केशवजी ने अपने खुशनुमा बगीचे में कुर्सियां लगवाई और प्रसादजी न दो चार शब्दों में परिचय देते हुए समग्र 'आमू' तन्मयता के साथ सस्वर सुनाया जिसे सुनकर हमलोग झूमने लगे।"यद्यपि आंसू का 'वस्तु' ऐहिक है या आध्यात्मिक, इस पर बहुत कुछ लिखा गया है, तथापि खेद के साथ कहना पड़ता है कि उसमें का अधिकांश आत्मनिष्ठ है न कि वस्तु निष्ठ । प्रसादजी की रचनाओं में गहरी पैठ रखनेवाले डा० राजेन्द्रनारायण शर्मा जो पिछले दिनों में उनके विशेष वात्सल्यभाजन रहे थोड़े शब्दों में आंसू के तत्व पर जी कुछ कहा है उसके मुकाबले में किसी की कोई उपज या तर्क ठहर नहीं सकते । 'प्रेम लिंग-भेद से परे है-भगवान की भाँति, क्योंकि वह अनिवर्चनीय प्रेमस्वरूप कहे गये है', 'वाच्य वाचक भेदेन भयानेव जगन्मयः ।' आँसूकार के जीवनकाल में ही उनसे पूछा गया कि आप अपने रहस्यमय चूंघट और अंचल वाले प्रियतम का नाम बतलाइये।- शशिमुख पर चूंघट डाले, अंचल में दीप छिपाये- जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम बोले-'आस् प्रेम के देवता की अर्चना है। प्रेम अपनी माया के विग्रह से अनन्त रमणीय रूप धरता है। उसे न स्त्री कहा जा सकता है, न पुरुष । न कोमल कहा जा सकता है, न पुरुष ।' और, उन्होंने पास ही रखी हुई राजेन्द्रजी वाली प्रति पर ये पंक्तियां अपने हाथ से लिख दी- ओ मेरे प्रेम बता दे-तू स्त्री है या कि पुरुष है। दोनो ही पूछ रहे हैं, कोमल है या कि परुष है ।। आये ॥ १८२: प्रसाद वाङ्मय