पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४८९

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बारातियों के संग बैठ सकता हूँ.। दोनों ओर की आड़ में रात को एक बज गयो । मामला सुलझता ही न था। जब बड़े बूढ़ों की कोशिशें बेकार हुई तब प्रसादजी ने समधी साहब को केवल इतना कहा-'देखिये, वह तो आपके बहनोई हैं, आप ठहरे साले, बहनोई की आड़ रखना साले का काम है। यदि आप उनसे अपनी बात मनवा लेंगे तो दुनिया यही कहेगी कि देखो साले ने बहनोई को नीचा दिखाया, तब दुनिया में हंसाई होगी आपकी।' प्रसादजी ने ऐसे लहजे में यह वाक्य कहा कि ठहाका लग गया और चुटकी बजाते गुत्थी सुलझ गई। घण्टों का बोझिल वातावरण बात की बात में निरम्र हो गया। पीछे मैंने प्रसादजी को उलाहना दिया कि अगर यही बात तुमने पहले कह दी होती तो इतनी बदमजगी न होती। उन्होंने उत्तर दिया-'तुम समझे नहीं, पहले कहता तो बात काम न करती। जब मैंने देखा कि ठीक अवसर आ गया है तो तीर चला दिया अहरौरा के रईस श्री सदायतन पाण्डेय के मझले भाई श्रीशचन्द्र पाण्डेय की बारात जौनपुर जिले के रुधौली कस्बे के एक प्रमुख जमींदार के यहां गई थी। कन्यापक्ष ने आतिथ्य का शानदार प्रबन्ध किया था। पाण्डेयजी भी अपने संग काशी के प्रसिद्ध रामभण्डार से तरह-तरह की स्वादिष्ट मिठाइयां और एक से एक शबत जादि ले गये थे। दो दिन बारातियों ने छक कर स्वाद लिया तीसरे दिन पाण्डेयजी की समधी साहब से किसी बात पर खटक गई। उन्होंने समधियाने से रसद लेना बन्द कर दिया। इधर यार लोग अपने ओर की सारी माल मलाई सरपोट चुके थे । शर्बतों में भंग का शर्वत भी था, जिसने बारातियों की क्षुधाग्नि धमका दी थी। सभी खेमों में बाराती टाप रहे थे। हम चार जन भी- प्रसादजी, आचार्य केशवजी, दादाजी और मैं अपने खेमे में किंकर्तव्य विमूढ़ बैठे थे। प्रसादजी ने निस्तब्धता भंग की। वह निरे नाटककार ही न थे, उन्हें नाटक करना भी आता था। बिना किसी चेप्टा के चुपचाप उठे और अपने असबाब में से “ऐय्यारी' का बटुआ खोलकर एक डिब्बा निकाला, उसे मण्डली के बीच में रख दिया-'अगर खाना है तो लीजिए खाइए भरपेट, और कोई आशा न रखिए। यह देहात की बारात है, इसमें ऐसा किस्सा बराबर हुआ करता है।' अब सबकी बांछे खिल गई। डिब्बे में थाक की थाक पूरियां और आम का सूख। अचार था। पूरियां आटे को दूध में गूंथकर बनाई गई थीं। ऐसी पूरियां आठ-दस दिन तक नहीं बिगड़ती। सबने आकण्ठ पेट पूजा की। दो-चार ग्रास खाने पर जान में जान आने पर केशवजी ने प्रसादजी से कहा-'पहले ही क्यों न बताया, हो तुम पूरे गुरु घण्टाल ।'--'हई हैं गुरु घण्टाल, • यदि पहले ही बता दिया होता तो यह मजा कैसे आता। जब देखा कि रसभंग का विन्दु आना चाहता है तो यह तोशा निकाला'- प्रसादजी ने सहास उत्तर दिया और हम सब के समर्थन हास्य से वह सन्नाटा खेमा गूंज उठा। संस्मरण पर्व : १८५