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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९०

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१९३१ के जाड़ों में प्रसादजी और आचार्य केशवजी को लेकर मैं अपनी एक ज़मींदारी पर गया। वह दस गांवों का एक ताल्लुका था । नित्य पूर्वाह्न में प्रसादजी केशवजी को लेकर गांव देखने जाते। ग्रामजीवन और समाज के खुले व्यौरे तथा जमीनों के विषय में वे करिन्दे से तरह-तरह के प्रश्न करते। मैं समझता था कि वे प्रश्न मात्र कुतूहल के लिए हैं, किन्तु जब उन्होंने अपना दूसरा उपन्यास 'तितली' लिखा तब उक्त संचित सामग्री का पूरा उपयोग किया। यद्यपि तितली पर कई प्रवीण आलोचकों ने पर्याप्त विमर्श किया है तथापि मेरी राय में बीकानेर के सम्भ्रान्त ठाकुर रामसिंह एम० ए० ने जो अंग्रेजी साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य के अपने ढंग के एक ही प्राध्यापक थे, अपने इन वाक्यों में तितली के सम्बन्ध में सब कुछ कह दिया- 'ग्राम्य जीवन का ऐसा सजीव, सूक्ष्म और अनुरंजनकारी चित्र हिन्दी साहित्य में कम देखने को मिला है। विशेषतः गर्वोन्मत्त निष्ठुर जमीदारों और मूक ग्राम्य जनता के पारस्परिक व्यवहारों का और उनके सुख दुखों का चित्र चित्त पर गहरी छाप डालता है ।""कितना सराहनीय है तितली का त्याग, कष्ट-सहिष्णुता, आत्मावलम्बन ! और प्रेम-कितना मर्मस्पर्शी है, सुन्दर है तितली और मधुवन का पुर्नमिलन - उपन्यास का अन्त ।' १९३३ ई० के जाड़ों में आचार्य द्विवेदीजी काशी पधारे और सदा की भांति मेरे अतिथि हुए। इस समय तक नागरी प्रचारिणी सभा से उनके सम्बन्ध सुधर गए थे। सभा ने उनका सम्मान कृते एक मानपत्र भी अर्पित किया । मुझसे शिवपूजनजी ने कहा कि केवल मानपत्र ही देना उचित नही-एक अभिनन्दन ग्रन्थ भी अर्पित किया जाना चाहिए । अस्तु हम दोनों ने मिलकर एक अपूर्व अभिनन्दन-ग्रन्थ निकाला। उसमें हिन्दी के सभी दिग्गजों की रचनाएं सम्मिलित थीं, केवल प्रसादजी ने कुछ नहीं दिया था। मैंने उनसे कहा कि 'कल तुम्हारे यहाँ आकर भोजन करूंगा और दक्षिणा भी लूंगा।' उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा-'जरूर आना, अपने हाथ से खुद बनाऊंगा।' प्रसादजी का सबसे प्रिय आहार था खिचड़ी। तरह-तरह की खिचड़ी वे बनाया करते, उसके आगे वे कोई अन्य पदार्थ न खाते। उस दिन उन्होंने मेरे लिए अपने हाथ से खिचड़ी बनाई थी। जिस प्रकार उनके साहित्य में आस्वाद और मौलिकता है वही बात उस खिचड़ी में भी थी। जब उनके संग सानन्द,भोजन हो चुका तब मैंने उनके यहां का स्वादिष्ट पान खाते हुए कहा-'अब दक्षिणा।' उन्होंने गम्भीर होकर उत्तर दिया- 'तुमने कभी इस बात पर भी विचार किया है कि द्विवेदीजी ने मेरे लिए कुछ किया भी है।'-मैं निरुत्तर हो गया। जब प्रसादजी का साहित्यिक उत्कर्ष प्रायः पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था, तभी दुलारेलालजी भार्गव की 'माधुरी' नामक सचित्र पत्रिका हिन्दी जगत में धूम मचा रही थी, साथ ही वह अपनी स्वर्गीय पत्नी की स्मृति में 'गंगा ग्रन्थमाला' १८६ : प्रसाद वाङ्मय