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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९१

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नामक एक पुस्तक माला निकालते थे। कुछ प्रमुख साहित्यकारों को भी उन्होंने अपने पक्ष में कर लिया था। यद्यपि उन्हें आर्थिक अभाव था, तथापि रत्नाकरजी से 'विहारी रत्नाकर' प्रकाशनार्थ प्राप्त कर लिया था। भाई मैथिलीशरण भी 'माधुरी' में प्राय: लिखा करते । उनके हाथ नही चढ़े तो केवल प्रसादजी। मात्र एक छोटी-सी कविता के अतिरिक्त उन्होंने भार्गवजी को कभी कुछ नहीं दिया। इसकी बड़ी कुढ़न थी। उन्ही दिनों प्रमादजी ने 'स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य' नाटक लिखा था। दुलारेलालजी चेष्टा करते रहे कि उसे गंगा पुस्तक माला में प्रकाशित करें तथापि वह भारती भण्डार से ही निकली। मूर्द्धन्य साहित्यकारों का एक ऐसा वर्ग था जो प्रसादजी की कटु आलोचना करता था- सर्जक मानता ही न था। इस दल में दो महारथी और उनके दो अनुगामी थे, किन्तु महारथियों ने उन्हीं को वास्तविक अग्रणी बनाया। एक ने तो अंग्रेजी आलोचना की पुस्तकों से चोरी कर करके स्कन्दगुप्त की लम्बी-चौड़ी शब्दाडम्बर-पूर्ण कटु आलोचना लिखी जिसे भार्गवजी ने पुस्तकाकार प्रकाशित कर दिया। दूसरे ने नाटक को ऐतिहासिक भूलों से पूर्ण दिखाना आरम्भ किया। उन सज्जन का नाम स्व. डा० धीरेन्द्र वर्मा से इतना मिलता-जुलता था कि लोग यही समझने लगे कि जब ऐमे श्रेष्ठ विद्वान स्कन्दगुप्त में ऐतिहासिक भूलें पकड़ रहे है तो वस्तुतः वह इस दिशा में त्रुटिपूर्ण है। ठीक उन्ही दिनों कलकत्ता से रामानन्द बाबू के मम्पादकत्व मे 'विशाल भारत' का साज- सज्जा पूर्ण प्रकाशन आरम्भ हुआ था। यह सत्य है कि अपने प्रकृतिगत स्वाभाविक मनोवृत्ति के कारण एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार को अच्छी निगाह से नहीं देख सकता। सम्पादक भी अपने आदत से लाचार थे। वे एक साहित्यिक के बारे में दूसरे माहि की राय लेते। निदान प्रसादजी की रचनाओं के सम्बन्ध में उन्होंने दो कवि वरेण्यों की सम्मति प्राप्त की। अतएव अब विशाल भारत में भी प्रमादजी पर बौछार शुरू हुई। इस प्रकार जैसे अभिमन्यु के लिए सात महारथियों का घेरा तैयार हुआ था, उसी प्रकार प्रसादजी के लिए छह महारथियों का घेरा। अन्तर केवल इतना था कि अभिमन्यु निरीह होकर उस घेरे का शिकार हुआ, किन्तु प्रसादजी अडिग रहे सो भी निःशस्त्र। प्रसादजी की तटस्थता को अनदेखा करते कृष्णदेव प्रसाद गौड़ 'साकेत' आदि की धूल उड़ाने लगे । 'आज' के प्रत्येक अंक में उन प्रहारकर्ताओं की वाक्यवाणावली प्रकाशित होने लगी। उन लोगों ने ऐसे तीर बरसाये कि सभी विपक्षी ठण्डे पड़ गये । इसी बीच भाई मैथिलीशरण काशी आए। १९३० के गर्मी के दिन थे। हमारी अनुपस्थिति में प्रसादजी हमारे घर आए, जब उन्हें विदित हुआ कि हमलोग स्ना। करने गंगाजी गये है तब वे भी घाट पर चले आये। उन्हें देखकर राष्ट्रकवि ने कहा-'आओ जयशंकर तुम भी स्नान करो, सीधे नहीं आओगे तो मैं पानी उछाल कर भिगो दूंगा।' और संस्मरण पर्व : १८७