पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९५

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उत्तर दिया-'हां, इसीलिए तो मैं तुम पर लखनऊ चलने के लिए जोर डालता था, मैं चाहता था कि वहाँ मेडिकल कालेज में मेरी भलीभांति परीक्षा करा दो।' यद्यपि प्रसादजी जवानी में बहुत बलिष्ठ और स्वस्थ थे, तथापि १९२८ ई० से उन्हें एक भयंकर बीमारी आरम्भ हुई। रह-रहकर आंतों में भयंकर दर्द होता जो उन्हें मूछित कर देता। उनके मुहल्ले के अनुभवी होमियोपैथी डाक्टर हुबदार सिंह की दवा से दर्द शान्त होकर आराम हो जाता था, किन्तु कुछ दिनों बाद उनकी दवा भी कोई काम न करती। तब बहुत जोर डालकर मैंने अपने कौटुम्बिक एलोपैथी डाक्टर शोभाराम का इलाज आरंभ कराया। यद्यपि लाभ होने लगा था तथापि डाक्टर साहब का कहना था कि इलाज लम्बे समय तक चलेगा, किन्तु वास्तविकता यह थी कि रोग का निदान ठीक से नहीं हुआ। कुछ दिन तक तो प्रसादजी ने उनकी दवा ली किन्तु फिर न जाने क्यों उनका इलाज बन्द कर दिया। कुछ दिनों बाद प्रसादजी ने हिन्दू विश्वविद्यालय के आयुर्वेद विभागाध्यक्ष कविराज प्रतापसिंह को दिखाने का निश्चय किया। मैं प्रसादजी को उनके पास ले गया। उन्होंने रोग का पूरा विवरण पूछकर भलीभांति परीक्षा की फिर पूछा-"क्या आपने बादाम का बहुत सेवन से नहीं किया है ?' प्रसादजी के स्वीकार करने पर उन्होंने बताया कि यही आपके रोग का कारण है। निदान उनकी चिकित्सा आरम्भ हुई -उससे लाभ हुआ और यह क्रम कुछ दिनों तक चला, फिर दवा का असर कम होने लगा, तब प्रसादजी पुनः होमियोपैथी पर आ गए। अब उदरपीड़ा के साथ-साथ अपराह्न में तबियत कुछ-कुछ भारी-सी रहने लगी । यद्यपि प्रमादजी मन बहलाने के लिए दोपहर बाद मेरे यहां आ जाते और घंटों गपशप-चुहलबाजी के बाद अपना भारीपन भूलकर चार बजे के लगभग वापस जाते, किन्तु रोग भीतर-भीतर उनके शरीर में घर कर रहा था। वस्तुतः उन्हें आंतों का क्षय हो गया था और यही उनके पेट-दर्द और भारीपन का कारण था। किसी चिकित्सक का ध्यान उस और न गया लौर क्षय फेफड़े की ओर बढ़ने लगा उन्हें खांसी आने लगी, फिर उनकी जास्था होमियोपैथी में ही बनी रही। काशी में उन दिनों एक सुविज्ञ एलोपैथ डाल्टर कैप्टन शरतकुमार चौधरी थे । वे भी मेरे कौटुम्बिक चिकित्सक और बड़े ही प्रेमी जीव थे, प्रसादजी से भी वे स्नेह करते थे और उनके साहित्य से प्रभावित भी थे। मैंने उनसे प्रमादजी की परीक्षा कराई और उन्होंने निश्चित निदान दिया कि क्षय हो गया है, किन्तु अभी विकट स्थिति नहीं है, ठीक-ठीक चिकित्सा होने से निरोग हो जायेंगे । जनवरी १९३७ में डा० मोतीचन्द के सबसे छोटा भाई का विवाह समारोह था, उसी अवसर पर २८ जनवरी को काशीनरेश महाराज आदित्यनारायण सिंह के आदरार्थ एक महफिल का आयोजन था । संयोगवश उन्हीं दिनों मेरे एक चचेरे भाई का शरीरान्त हो गया था, इस कारण मैं विवाह में तो मम्मिलित न हुआ। महाराज संस्मरण पर्व : १९१