वाली महफिल के दिन तक मेरे भाई का दसवा हो चुका था, अतएव में छिपकर भारतेन्दु भवन गया, भाई मैथिली शरण भी मेरे साथ थे, प्रसादजी भी आ गये थे। महफिल के पहले ज्योनार भी था। मैं कैसे खुलकर शरीक होता अतएव डाक्टर साहब ने एक अलग कमरे में हम तीनों जनों के भोजन का प्रबन्ध किया, इस प्रकार उस ज्योनार का भरपूर आनन्द हम लोगों ने लिया । कौन जानता था कि प्रसादजी के संग भोजन के आनन्द का आज यवनिका पतन है। मैं उसी कमरे में बैठा रहा और प्रसादजी तथा गुप्तजी महाराज की फहमिल मे चले गये। वही बहुत जाड़ा देकर प्रसादजी को ज्वर आ गया। महफिल से उठकर बड़ी कठिनता से घर पहुंचे और जो शय्याग्रस्त हुए तो अन्तिम दिन तक शय्या न छोड़ सके। ३० जनवरी के लगभग अपने दो भतीजों के विवाह के सिलसिले मे मुझे पटना जाना पड़ा। १३ फरवरी के आसपास वहां से लौटने पर मैं मोतीचन्दजी के साथ ही प्रसादजी को देखने गया- १४-३-३७ को, पाया कि वे बहुत ही क्षीण हो गये है। कलेजा धक से हो गया। इस बीच ३ फरवरी के लगभग 'कामायनी' की मुद्रित प्रतियाँ प्रयाग से उनके पास आ चुकी थी। इतने क्षीण होते हुए भी उन्होने मजे से बात की और कामायनी की हस्ताक्षरित प्रतियां हम दोनों को दी। मोतीचन्दजी की नियुक्ति प्रिन्स आफ वेल्म म्यूजियम में हो चुकी थी। अत कई दिन बाद वे प्रमादजी से अन्तिम वार मिले और बम्बई चले गये। यह निश्चित हो चुका था कि प्रमादजी का एक फेफड़ा क्षय से पूर्णतः आक्रान्त हो गया था। मेरे अनुरोध पर कैप्टन चौधरी की चिकित्सा आरम्भ हुई। उन दिनों एलोपैथी मे क्षय की चिकित्सा यह थी कि छाती में बित्ते भर की सूई प्रविष्ट करके फेफड़े में इन्जेक्शन देते थे जिससे रुग्ण फेफड़ा क्रमशः जल जाता था। कोई २०-२५ सूइयों का वह कोर्स होता था । डा० चौधरी ने सलाह दी कि प्रसादजी घर छोड़कर किमी खुले बगीचे मे चले जाये और वही सूई का उपचार किया जाय । सारनाथ मे एक बगीचा किराये पर ठीक किय गया, उनका सामान ले जाने के लिए बस भी आ गई। ठीक उसी समय उनकी तबियत एकाएक बहुत बिगड गई-सम्भवतः इसका कारण मानसिक था, सूई की चिकित्सा न कराने की अनिच्छा का ही यह मूर्न रूप था। बम, यात्रा स्थगित हो गई। वह मुझमे कहने लगे- 'जव बित्तेभर की सूई मेरी छाती में घुसेड़ी जायगी तब मेरी क्या दशा होगी । अव मैं आने को विश्वनाथ पर छोड़ता हूँ। डा० चौधरी खाने की दवा देते रहे और उससे कुछ लाभ भी होता रहा। वसन्त ऋतु बीती और गर्मी आरम्भ हुई। प्रसादजी बहुत कुछ ठीक हो चले थे, खांसी भी काफी कम हो गई थी-केवल तीसरे पहर कुछ तापमान हो जाता था। उन्हीं दिनों मेरे पूछने पर डा० चौधरी ने कहा-'इन्हें पूर्ण विश्राम मिलना चाहिए, यदि बरसात आने पर बंध गया, १९२ : प्रसाद वाङ्मय
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