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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४९७

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1 भी रोग का यही क्रम बना रहा तो यह समझना चाहिए कि निरोग हो जाने की आशा है।' एक दिन कोई ८ बजे पूर्वाह्न में उनके पास पहुंचा तो पाया कि वे बिल्कुल अकेले हैं । मेरे पहुंचने पर उन्होंने अपनी पत्नी को पुकारा और वह एक बकस लिए हुए आई और मुझे देखकर चूंघट काढ़ लिया, इस पर प्रसादजी ने कहा-'इनसे धुघट न किया करो। उस बक्से में पुरानी चाल के स्वर्णाभूषण थे जिनकी तौल तीन-चार सौ तोले से कम न थी। सब मुझे दिखाते हुए कहने लगे-'बच्चा के विवाह की तैयारी धीरे-धीरे करनी है, इन सब गहनों को नये चाल का बनवा दो।' 'बात यह थी कि मेरे यहां के गहने स्व० कन्हैयालाल नामक सोनार बनाते थे। वे अपने हुनर में प्रवीण थे । गुप्तजी उनके विषय में कहा करते थे कि कन्हैयालाल तो सोने की गढ़ाई में कविता करते है । परन्तु वह बड़े ही आलसी थे और काम में बरसों लगा देते। प्रसादजी उनकी यह आदत जानते थे फिर भी उनकी कला- अद्वितीयता के कायल थे। कहने लगे-'कन्हैयालाल दो तीन बरस में धीरे-धीरे बना देंगे, तब तक बच्चा के व्याह का समय आ जायगा। परन्तु मैं इतनी जोखिम अकेले ले जाने में हिचकिचावा। उनके बार-बार के अनुरोध पर यह तय हुआ कि शाम को एकाध व्यक्ति और लेकर तांगे से आऊंगा और जोखिम ले जाऊँगा। किन्तु शाम को इस प्रबन्ध के साथ उनके पास जाने पर उन्होंने उलाहना दिया कि-'सबेरे यदि ले जाते तो ले जाते, अब इस पर रोक लग गई है।' बात यह थी कि जब उनकी बड़ी भाभी को यह बात मालूम हुई तब उन्होंने कहा-'झारखण्डी, घर का सोना बाहर नही जायगा।' प्रसादजी अपनी भाभी का बड़ा सम्मान और आदर करते थे, और उनकी आज्ञा टाल नहीं सकते थे। बरसात लगते ही उनकी हालत एकाएक बिगड़ गई, तापमान अधिक होने लगा, मुंह और कण्ठ में छाले पड़ गये, स्वर-भंग हो गया, सांय सांय बोलने लगे। कठिनता यह थी कि सबेरे से शाम तक लोग उनसे मिलने आते थे, उन्हें जरा भी विश्राम न मिलता था। इससे उनका मन तो बहलता किन्तु थक बहुत जाते। उन दिनों स्वभावतः उनके सुहृद और हिन्दी प्रेमी बहुत चिन्तित थे फलतः बहुतेरे पत्र उनके पास आते कि आपका जीवन केवल आपका ही नही-हिन्दी जगत का है, आप समुचित चिकित्सा कीजिए और किसी ठण्डे पहाड़ पर चले जाइये, व्यय की चिता न कीजिए, मैं (पत्रलेखक) उसका भार वहन करूंगा""आदि आदि। एक दिन प्रातःकाल जब प्रसादजी की तबियत तनिक सम्भली थी प्रो० कृष्णानन्द उनके पास गये, देखा एक पत्र उनके पास ही पड़ा है। वर उस पत्र की लिपि से परिचित थे, बोले-'महाराजकुमार डा० रघुबीरसिंह का पत्र जान पड़ता है।' 'हां, देखो।' कृष्णानन्दजी ने उसे पढ़ा, उसमें महाराजकुमार ने बहुत ही आग्रह-अनुनय पूर्वक , संस्मरण पर्व : १९३