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मिलन भाग्य में कहां लिखा था, कौन जानता था कि यह मिलन सदैव के विछोह के लिए है। कवि के शब्दों में-'आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे।' संयोग देखिए.कि २८ बरस पहले इसी नवम्बर महीने के उत्तरार्द्ध में उनसे पहले पहल मिलन हुआ और अब इसी के उत्तरार्द्ध में वियोग। परम माहेश्वर होने के कारण प्रसादजी संसृति का नटराज के नर्तन रूप में दर्शन करते थे। 'काश्यां मरणान्मुक्ति:' का विशद वर्णन बहुत तन्मयता से एक दिन मुझे सुनाया था जब स्वस्थ थे-काशी में जिस समय जीव प्रयाण करने लगता है, मां अन्नपूर्णा अपने आँचल से उसे पंखा झलने लगती हैं। इसकी शीतला से उसके त्रिविध ताप की सद्यः निवृत्ति हो जाती है । उस समय भगवान भूतभावन उसे तारक मन्त्र का उपदेश देते हैं और वह मुक्त हो जाता है। प्रसादजी का अवसान १४-१५ नवम्बर की रात को तीसरे प्रहर हुआ, जिस समय १५ तारीख लग चुकी थी। उस समय का जो शब्दचित्रण उनके आत्मीय डा० राजेन्द्रनारायण शर्मा से सुना है उससे निःसंशय हो जाता है कि प्रसादजी ने उक्त कैवल्य-लाभ किया है। मंस्मरण पर्व : १९५