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प्रसादजी के कुछ संस्मरण डॉ० कुंवर चन्द्रप्रकाश सिंह ८ जुलाई, सन् १९३६ ई०। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे एम० ए० (हिन्दी) में प्रवेश हेतु मैं वाराणसी पहुंचा। उस समय तक मेरी गद्य-पद्य की रचनाएँ हिन्दी के प्रमुख पत्रों में स्थान पाने लगी थी। तबतक महाप्राण निराला का मैं अनन्य स्नेहभाजन बन चुका था तथा कविवर सुमित्रा नन्दन पंत से भी मेरा घनिष्ठ परिचय हो चुका था। किंतु आधुनिक काव्य की तत्कालीन नूतन धारा-छायावाद के प्रवर्तक महाकवि प्रसाद के दर्शन का सौभाग्य मुझे अभी तक नहीं मिल सका था, यद्यपि उनकी तबतक प्रकाशित प्राय सभी रचनाये मैं पढ़ चुका था तथा उनकी 'आँसू आदि कई रचनाये मुझे कंठस्थ हो गयी थी। इसलिए वाराणसी पहुंच कर सबसे पहले मुझमे प्रसादजी का दर्शन करने की लालसा जाग्रत हुई। वाराणसी मे मैं अपने एक संबंधी के यहां ठहरा था, जहां से प्रसादजी का निवास स्थान गोवर्धनसराय निकट ही था। __दूसरे दिन प्रात नित्यकर्म से निवृत्त हो मैं पता पूछते हुए, प्रसादजी के निवास तक पहुंच गया। देखता हूँ-सामने एक बडी कोठी है। उसके सामने चबूतरे पर लोगों के बैठने के लिये पत्थर की शिलाओं की सादी आसन्दियाँ हैं । चबूतरे से संलग्न एक कोठरी है, जो वंश परम्परा मे चले आ रहे तम्बाकू के व्यवसाय हेतु भण्डार गृह के काम आती है। इसी कोठरी के अलिन्द मे, बिना बिछावन के एक तख्त पर बैठे दो सज्जन शतरंज खेलने मे तल्लीन थे। प्रसादजी के पहले देखे चित्रो के आधार पर मैंने फौरन ही पहचान लिया कि केवल गंजी पहने, पश्चिमाभिमुख बैठे हुए, पुष्टतन मौम्य मज्जन ही प्रमादजी है। पास जाकर मैंने उन्हें प्रणाम निवेदित किया। बिना इष्टि उठाये, इशारे से ही, प्रसादजी ने मेरा अभिवादन स्वीकार किया तथा पास ही पड़ी हुई एक बेंच पर बैठने का संकेत किया। प्रसादजी का वह प्रथम दर्शन मेरे लिए बड़ा ही रोमांचकारी अनुभव था। उनके कृतित्व से तो मैं पहले से ही प्रभावित था, उस दिन उनके निश्छल व्यक्तित्व से भी मैं अभिभूत हो उठा। मैंने देखा-वे बालकों की तरह सरल हैं। शतरंज के १९६ : प्रसाद वाङ्मय