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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०८

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जब वे लौटे तो उनकी आंखों में करुणा और शोक का सागर लहरा रहा था। उस रात उन्होंने बहुत आग्रह करने पर अन्यमनस्क भाव से थोड़ा भोजन किया और लिखने बैठ गये। लगभग घंटे भर में उनका लेख तैयार हो गया। शीर्षक था, 'हिन्दी के गर्व और गौरव प्रेमचंद जी।' यह लेख प्रयाग से निकलने वाले अर्ध साप्ताहिक पत्र 'भारत' में प्रकाशित हुआ जिस मनःस्थिति में निराला जी ने यह लेख लिखा, उसका में साक्षी था। निराला जी कितने महान थे; यह लेख उसका मापदण्ड है । इस लेख में उनकी वेदना का निर्झर शत-शत धाराओं में बह चला था। उन्होंने प्रेमचंद जी के कृतित्व की महिमा का आवेगपूर्ण वर्णन करते हुए मूल्यहीन होती हुई समकालीन राजनीति की पाखण्डपूर्ण प्रवृत्तियों पर करारा आघात किया था। उन्होंने लिखा था-'हिन्दी के युगान्तर साहित्य के सर्वश्रेष्ठ रत्न, अन्तन्तिीय ख्याति के प्रथम साहित्यिक, प्रतिकूल परिस्थितियों से निर्भीक वीर की तरह लड़नेवाले, उपन्यास-संमार के एकछत्र सम्राट्, रचना-प्रतियोगिता में विश्व के अधिक से अधिक लिखनेवाले मनीषियों के समकक्ष आदरणीय श्रीमान प्रेमचंद जी आंज महाव्याधि से ग्रस्त होकर गय्याशायी हो रहे हैं। ____ "कितने दुःख की बात है कि हिन्दी के जिन पत्रों मे हम राजनीतिक नेताओं के मामूली बुखार का तापमान प्रतिदिन पढ़ते रहते है, उनमें श्री प्रेमचंद जी, हिन्दी का महान उपकार करने वाले प्रेमचंद जी की अवस्था की साप्ताहिक खबर भी पढ़ने को नही मिलती। दुःख नही, यह लज्जा की बात है, हिन्दी भाषियों के लिए मर जाने की बात है। उन्होंने अपने साहित्यिकों की ऐसी दशा नही होने दी कि वे हंसते हुए जीते और आशीर्वाद देते हुए मरते । इमी अभिशाप के कारण हिन्दी महारानी होकर अपनी प्रान्तीय सखियों की भी दासी है।" इस लेख के अन्त में प्रेमचंद जी के स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुए उन्होंने लिखा था-'हे राम ! केवल दस वर्ष और ।' जहां तक मुझे स्मरण है, यह लेख लिखकर उन्होने प्रसादजी को भी दिखलाया और फिर उसे प्रकाशनार्थ अर्ध साप्ताहिक 'भारत' में भेज दिया। प्रसादजी भी प्रेमचंद जी की असाध्य होती हुई बीमारी के कारण बहुत उद्विग्न थे। मैंने देखा, उस दिन प्रसादजी की बैठक का वातावरण गहरी उदासी से भरा हुआ था। निराला जी जब लौटे, तो चिन्ताकुल तो थे ही, कलम-कागज लेकर फिर कुछ लिखने बैठ गये। देर तक कागज पर कुछ खांकते रहे। मैंने पूछा, पंडितजी माज क्या लिख रहे हैं ?' उत्तर दिया, 'एक बड़ी कविता लिखना चाहता हूँ, उसी के लिए छन्द का स्वरूप निर्धारित कर रहा हूँ।' थोड़ी देर बाद उस कागज पर दो अमर पंक्तियाँ उतर आयीं, वे थीं २०४: प्रसाद वाङ्मय