पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

पहन कर प्रसादजी खाट पर विराजमान होते । आगन्तुक लोग यही पर उनसे मिलते। मिलने वालों में साहित्यकार, सहयोगी तथा अन्य सज्जन भी होते । सभी का स्वागत-सत्कार पान तम्बाक से किया जाता। प्रसादजी या तो अखाड़े में व्यायाम करते अथवा टहलते थे। यही उनके शरीर पर तेल मालिश की जाती। शिवालय के निकट ही कुंआ था जहां वे स्नान करते और पूजन-अर्चन के लिये शिवालय में प्रवेश करते। मुख्य भवन में वापस आकर वे भोजन करते और उपरान्त लगभग एक घण्क्ष विश्राम करते। ____ अपराह्न ३ बजे से संध्या ६ बजे तक वे पुनः उसी खपड़ेल में उसी खाट पर वैठते और पुनः मिलने वाले उनके पास पहुंचते । __सायंकाल ६ बजे के बाद वे स्नान करते । इसके बाद अस्तबल से लैण्डो (घोड़ागाड़ी) द्वार पर आ जाती और वे उसमें बैठकर दूकान जाते। यह दूकान चौक के पास नारियल गली में है। दूकान के मामने चबूतर। था। उसी पर प्रसादजी आसन जमाते और यहां भी उनके अनेक बंधु आते, बैठते और आलाप होता। जो भी प्रसादजी से मिलता तो वह यही समझता जैसे उसकी प्रसादजी से प्रगाढ़ मैत्री हो। विशेष स्नेह-भाव प्रसादजी का चित्रकला मर्मज्ञ राय कृष्णदास से था। एक सज्जन और भी थे जो दूकान के सामने चबूतरे पर प्रसादजी के निकट बैठे पाये जाते। वे जरी के काम का व्यवसाय करते। उनका नाम श्री मोहनलाल था। साहित्यिक लोग वहाँ आ जाते और तरह-तरह की बातें हँसी दिल्लगी होती। रात को १० बजते-बजते प्रसादजी घर वापस आ जाते और भोजन के अनन्तर अध्ययन लेखन करते । रात के पिछले पहरों में मुश्किल से दो-ढाई घण्टे मोते ।। काशी जाने पर प्रसादजी का 'हाबा' उन्हीं के समीप रहता था। बहुत दिनों बाद एक दिन सोचने लगा-इस 'हाबा' शब्द की व्युत्पत्ति क्योंकर है। अकस्मात ध्यान में आया कि मैं हाबड़ा से गाड़ी में बैठकर उनके समीप पहुंचा था अतः हावड़ा से कर्ण कटु ड़ अक्षर को निकाल कर उन्होंने मुझे 'हावा' नाम से सम्बोधित किया। किन्तु अब इसकी पुष्टि किससे कराता-वे तो जा चुके थे। रुचि तथा व्यंजन प्रसादजी स्वादिष्ट भोजन पसन्द करते। मिष्ठान्न में उन्हें मगदल प्रिय था, किन्तु कलकत्ते के सुख्यात मिष्ठान्न-प्रतिष्ठान गुप्ता ब्रदर्स (संस्मरण के लेखक द्वारा संचालित) द्वारा निर्मित खीर-मोहन भी उन्हें प्रिय था। यह खीरमोहन प्राप्त होता तो उसे वे भोजनोपरान्त अवश्य ग्रहण करते । शीतकाल में मगदल अवश्य खाते। हरी मटर और चिउड़े की खिचड़ी उन्हें बहुत प्रिय थी। वे शीतकाल में भोजनोपरान्त नमक के साथ अदरख खाया करते । २२०:प्रसाद वाङ्मय