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मेरे भैय्या महाकवि 'प्रसाद' -मुकुन्दीलाल गुप्त प्रथम साक्षात्कार ईसवी संवत् १९१२ में मैं जब प्रथम बार काशी गया तो मेरी अवस्था ५ वर्ष की थी और मुण्डन संस्कार के लिये मुझे काशी लाया गया था। यह प्रथम अवसर था जब मैंने प्रसादजी का दर्शन किया। उन्होंने मुझे 'हाबा' शब्द से सम्बोधित किया मुण्डन के पश्चात् प्रसादजी ने मुझे मुन्दर वस्त्रो मे सुसज्जित किया और मुझे पांच रुपये हो। X X तदनंतर मैं ८ वर्ष की आयु में प्रसादजी से काशी में मिला। मैंने उस समय उनकी दिनचर्या को लक्ष्य किया जो कि बाद में भी बराबर उसी क्रम से चलती रही। वे प्रातः ५ बजे शैय्या त्याग करते। शौच जाने के पहले वे खैनी (चूने के साथ मली गयी तम्बाकू) खाते । शौचादि से निवृत्त होकर वे पान खाते। प्रातः भोजन अथवा कलेवा करते मैंने उन्हें कभी नहीं देखा। स्नान के पूर्व सिवाय पान-जर्दा के वे कुछ भी नहीं खाते थे। पान खाकर वे जर्दा बनाने के कारखाने में प्रवेश करते प्रायः ठीक ७ बजे प्रातः । कभी-कभी मैं भी उनके साथ कारखाने मे चला जाया करता। कारखाने में सुरती के डंठल पीसने की एक मशीन थी जिसका इंजिन वाष्प चालित था। उन्होंने मुझे बताया कि यह उसी प्रकार की रेल है जिस पर हबड़ा से बैठकर 'हाबा' कलकत्ता से काशी पहुंचा। ___कारखाने की एक कोठरी के सामने प्रसादजी आमन जमाते और जर्दा तम्बाकू में आवश्यक मसाले के मिश्रण का वे कार्य कराते। जो कर्मचारी इस कार्य के लिये नियुक्त था उसकी आँखों पर पट्टी बँधी रहती ताकि वह 'फार्मूला' जान न पाये। यह कार्य १० बजे तक चलता। भवन की बांयी ओर खपड़ेल का एक मकान था। उसी में से बगीचे, अखाड़ा तथा शिवालय का प्रवेश द्वार था। उसी की दालान में तारकेश्वरी गमछा संस्मरण पर्व : २१९