पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३२

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सवार हुए। जब गाड़ी राजघाट स्टेशन पर आकर रुकी तो हमारे कम्पार्टमेंट के दरवाजे के सामने एक देहाती आ पहुंचा, उसके हाथ में एक बड़ी लाठी थी। दरवाजा बन्द था, उसने दरवाजा खोलने के लिए कहा, पर दरवाजे पर बैठे हुए बचन महराज और महिदेव पण्डित ने दरवाजा नहीं खोला। उन दोनों ने भीतर से दरवाजे में अपने पांव टेक लिए जिससे दरवाज़ा किसी प्रकार खुल न सके। देहाती बड़ा मुस्चण्ड था। उसने चिल्लाकर कहा-'सरऊ दरवज्जा खोलबऽ कि तोड़ देई'। यह सुनकर प्रसादजी हंसने लगे और बचनू महाराज को दरवाजा खोल देने के लिए इशारा किया, लेकिन महिदेव पण्डित ने दरवाजा नहीं खोला। उन्होंने कहा'भइया, इ सरवा गारी, देहले हो, दरवाजा न खोलब'। इसी बीच गाड़ी खुल गई; पर वह देहाती बाहर से दरवाजा पकड़ कर लटक गया। जब गाड़ी पुल पर पहुंची तो भीतर से महिदेव पण्डित ने उस देहाती को सम्बोधित करते हुए कहा--'का हो सरऊ अब तोहें, इहैं से ढकेल देई तऽ कहां जइव' । देहाती चुप था। भुगलसराय के निकट गाड़ी की गति मन्द होने लगी। अब वचनू महराज ने महिदेव पण्डित को सम्बोधित करते हुए कहा-'का हो गुरु, अब का होई, मुगलसराय में गाड़ी रुकी, और एकरे हाथे मे लाठी हो'। महिदेव पण्डित चुप थे। गाड़ी रुकी और उन्होंने उस देहाती से कहा-'भय्या, बुरा मत मनिहा, भीतर चल आवा, इ तो हंसीमजाक रहल है'। पर देहाती कुछ बोला नही। गाड़ी से उतरा और चुपचाप चला गया। हम लोग अहरौरा पहुंचे। दूसरे दिन हम लोगों ने वहां के पहाड़ी स्थानों में घूमने और बन-भोज़ का निश्चय किया। एक पहाड़ पर पहुंच कर हम लोगों ने भोजन बनाने की व्यवस्था की। भोजन बनाने का काम प्रमादजी ने स्वयं अपने हाथ में लिया। गोहरा के दो अहरे दग गये । भात और दाल की दो हंड़ियां चढ़ गई । प्रमादजी चावल-दाल छोड़ रहे थे। धुएं से उनका चेहरा लाल हो उठा । मैंने कहा-'भइया, आज का भोजन तो हम लोगों को बड़ा मंहगा पड़ेगा, आपको बहुत कष्ट हो रहा है।' यह सुनकर वे हंसने लगे और उन्होंने कहा-'कष्ट कुछ नहीं है, अभी धुआं समाप्त हो जाता है।' प्रसादजी के हाथ से बनी अरहर की उस दाल में जैसा स्वाद मुझे मिला । आज तक वह मुझे नही भूलता। अहरौरा से बारात चंदौली जाने वाली थी, जिसमें प्रसादजी तो आमंत्रित थे ही, मैं भी आमंत्रित था। उसमें नाच का प्रबन्ध प्रसादजी के द्वारा ही हुआ था। काशी की एक सुप्रसिद्ध नर्तकी के नृत्य और गान का आयोजन था। हम दोनों बारात में सम्मिलित हुये। दूसरे दिन जनवासा था। उसमें प्रसादजी आगे की पंक्ति में बैठ गये और मुझे भी उन्होंने अपनी बगल में बैठा लिया। नाच आरम्भ हुआ। नर्तकी नाचते-नाचते प्रसादजी के सामने आकर ठहर २२८: प्रसाद वाङ्मय