पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३५

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१०-कोठी के काम अलावे जो कोई कर्ज वा फेल करेगा वह उसका जाती जिम्मेदार होगा। ईस्टेट से कोई ताल्लुक न होगा।" सरजू प्रसाद बा० खुद गारदा प्रसाद x प्रयाग यात्रा प्रयाग-कुम्भ का अवसर था। मैं कलकत्ते से अपनी माँ, नानी और अग्रज के साथ कुछ पहले ही इलाहाबाद पहुँच गया। लगभग एक सप्ताह प्रयाग में रहने के बाद मैं काशी चला आया, पर मेरे साथ के अन्य सदस्य प्रयाग में ही रहे। अभी कुम्भ में दस-पन्द्रह दिनों की देर थी। काशी में मुझे खाली हाथ देखते ही-प्रसादजी बोल उठे, 'तुम, अभी कहाँ से आ रहे हो, सामान कहाँ है'--मैंने कहा-'भइया, मैं अभी प्रयाग से आ रहा हूँ, वहाँ मैं कई दिनों से हैं, साथ माताजी, नानीजी और बड़े भाई साहब भी हैं सब लोग कुम्भ स्नान करने आये हैं।' मेरे इस उत्तर को सुनकर उन्होंने बड़ी गम्भीर मुद्रा में कहा-- 'अच्छा, आप लोग कुम्भ नहाने चले हैं।' ___ इसके बाद मैं बड़ी भाभी के दर्शन हेतु ऊपर चला गया। कुशल क्षेम के पश्चात मैंने बड़ी भाभी से कहा -'भाभी, कुम्भ का अवसर है, फिर जीवन में आयेगा या नहीं । चलकर स्नान कर आइये। वहाँ मेरी माँ, नानी और बड़े भाई साहब भी आये हैं। उन्होंने कहा - 'कइसे चली मकुन्दीलाल-का उहो चलिहै' उनका संकेत प्रसादजी की ओर था। मैंने कहा-'भाभी मैंने तो उनसे इस सम्बन्ध में चर्चा नहीं की। कहो, तो पूछ लू । रात में जब हम लोग भोजन पर बैठे। प्रयाग यात्रा का प्रसंग उठा। मैंने कहा - 'भइया, चलिए कुम्भ स्नान कर आइये' । बड़े गम्भीर स्वर में उन्होंने कहा'अच्छा, बात हो चुकी है, तो फिर मैं चलंगा। तुम मे चलने की क्या व्यवस्था करोगे। मैंने कहा-'आप चलना स्वीकार कीजिए। सारी व्यवस्था हो जायेंगी, उसकी जिम्मेदारी मेरी है। उन्होंने कहा- 'तुम मेरे लिए एक स्टेशन वैगन ठीक कर दो, मैं रेल से यात्रा नही करूंगा'। मैने एक पंजाबी की स्टेशन वैगन ठीक कर दी और प्रयाग चला गया। निश्चित तिथि पर प्रसादजी पूरे परिवार के साथ प्रयाग पहुंच गये । उन्हें लेने के लिए मैं इलाहाबाद चौक में पहले से खड़ा था। मुझे देखते ही उन्होंने कहा-'मैं आ गया' मैंने कहा- 'हां-आप आ गये, मैं भी देख छोटी भाभी के पांव में जूते नही थे, यह बात मुझे खटकी। क्योंकि मेरे परिवार के सभी लोगों के पांव में जूते थे। एक दिन हम इलाहाबाद चौक में घूम रहे थे। हम लोग एक गाड़ी में थे। सामने एक जूते की दूकान दिखाई पड़ी। मैंने बगल में संस्मरण पर्व : २३१