पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५३६

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बैठे 'प्रसादजी की ओर संकेत किया, कि यहां उतर कर भाभीजी को जूते खरीद लिये जाये। उन्होंने मुझसे कहा-'यह प्रस्ताव तुम्ही करो, मैं नहीं करूंगा और मेरे कहने से शायद वे पहिनेगी भी नहीं तीर्थ करने आई हैं न-बड़ी जिद्दी है ।' मैंने बहाने से गाड़ी वहीं रोक दी और सबको लेकर जूते की दुकान में प्रवेश किया। वहां बड़ी आरजू मिन्नत के बाद भाभीजी ने जूते पहिने, फिर भी जूते वाले को उन्होंने अपना पर नहीं छूने दिया, अपने हाथ से लेकर पहिना । X X जिस दिन कुंभ-स्नान के लिए हम सब लोग त्रिवेणी संगम जाने के लिए तैयार हुए, प्रसादजी ने कहा, 'तुम लोग जाकर स्नान कर आओ मैं नहीं जाऊँगा' मैंने कहा--'यह क्यों ?' उन्होंने कहा-'इस भीड़ में मैं नहीं जाऊंगा, मैं यहीं से गंगायमुना को नमस्कार कर लूंगा।' मैंने बहुत कहा पर वे नहीं ही गये। और वहीं डेरे में पड़े रहे। जिस मकान में हम लोग वहां ठहरे थे, वह एक जैतली महोदय का था। उनका नाम था-श्री मुरलीधर जैतली। मकान काफी बड़ा था,' प्रसादजी मेरे इस आवास प्रबन्ध से बड़े सन्तुष्ट थे। x प्रसादजी का त्याग प्रसादजी में अद्भुत त्याग था। इसका परिचय उनके जीवन का एक घटना में मिल जाता है। प्रसादजी अपने ननिहाल से कुछ क्षुब्ध और विरक्त रहते थे। कारण क्या था, मैं नहीं बता मकता। उनके ननिहाल में मामा-मामी के अतिरिक्त और कोई नहीं था। उनके ६ किता संगीन मकान रानी कुंआ में थे और वे लोग वहीं रहते थे। मामा ने अपने जीवन के अन्तिम समय में न जाने कितनी बार प्रसादजी को बुलवाया, पर वे कभी भी उनसे मिलने नहीं गये। अन्त में वे मर गये, फिर भी प्रसादजी वहां नहीं गये। मामा के देहावसान के कुछ ही दिनों बाद उनकी मामी भी बीमार पड़ी। उन दिनों में काशी में ही था। मेरे सामने उनकी मामी के कई बुलावे आये, पर वे मामी से भी मिलने न गये। मैंने उनसे कहा-'भैय्या, क्या बात है, मामी बीमार हैं, वे आपसे मिलना चाहती हैं, आप क्यों नहीं उनसे मिल लेते ?' यह सुनकर वे मेरे ऊपर बिगड़ गये और बोले-'तुम नहीं जानते, उनके पास किता संगीन मकान हैं एक बड़ा सा बाग है- सारंग पर और कुछ पैसे हैं, वहीं देने के लिए वे मुझे बुलाती हैं और मैं उनकी सम्पत्ति लेना नहीं चाहता।' इसीलिये मैं वहाँ जाना नहीं चाहता और जाऊंगा भी नहीं।' यह सुनकर मैं चुप हो गया। १. लोकनाथ महादेव के पास मुहल्ला खुशहाल पर्वत में यह मकान था। (सं.) २३२ : प्रसाद वाङ्मय