पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४९

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व्यवस्था मेरे ऊपर छोड़ दी है, तो निश्चिन्त रहें। व्यय की चिन्ता नहीं करनी है।' निश्चित दिन पर हम लोग यात्रा के लिए घर से बाहर निकले। सारा सामान बाहर आ गया। प्रसादजी और मेरे अग्रज पुरुषोनमदास गाड़ी में बैठ गये। उनके साथ दोनों भाभियाँ, चि० बच्चा (रत्नशंकर) लम्बोदर वैद्य, एक नौकर और एक दाई थी। मै भी गाड़ी में बैठने ही वाला था कि मकान के ऊपर से अचानक रोने की आवाज आई। ज्ञात हुआ कि मेरे बहनोई बिहारीलाल (काशी) की नवजात कन्या का देहावसान हो गया। इस दुर्घटना से मै कुछ चिन्तित हो उठा और मैने 'प्रसाद'जी से कहा -'भैय्या अब तो मेरा जाना स्थगित हो गया-अशौच की अवस्था में पुण्य कार्य को निपिद्ध माना जाता है।' थोड़ी देर तक मौन रहने के बाद उन्होंने मुझसे पहा-'जब नियति ने अपने निर्धारित कार्य को किया तो फिर तुम अपने निर्धारित कार्यक्रम को क्यों छोड़ोगे। तुम भी अपन, पूर्व निर्धारित कार्य करो। इसमें अमंगल कहा-She did not miss her boat then why should we ? यह मनकर में भी अपने निश्चय पर रद हो गया और नीचे से ही मां को संकेत किया कि मैं जाता है। उन्होने भी ऊपर मे ही मुझे जाने के लिए हाथ से संतेत किया। यद्यपि उस समय मेरा मन कुछ विन्न हुआ, पर मुझे किसी प्रकार के क्लेश का अनुभव नहीं हुआ। हम लोग लांच मे बैठ गये और आगे बढ़े। वहाँ समुद्र में कुछ दूर हमारा जहाज खडा था। बड़ा सुहावना दृश्य था। पर वहां की गन्दगी ने प्रसादजी के मन में कुछ घृणा उत्पन्न कर दी। उन्होंने मुझे बुलाकर कहा-देखो, यह तीर्थ स्थानों की स्थिति है, चारों ओर कितनी गन्दगी है। 'मैंने वहा--' भैय्या, जहां लाखों मनुष्यों की भीड़ है, गन्दगी तो स्वाभाविक है।' हम लोगों ने संक्रान्ति के दिन खिवड़ाव किया । मन्दिर मे दर्शन करने के बाद लोगों ने खिचड़ी खाई और विश्राम किया। प्रसादजी का स्नान जहाज के केबिन मे ही हुआ। ___ संक्रान्ति के दूसरे दिन लौटना था। बड़ी भाभी ने मुझे कुछ साग-सब्जी लाने के लिए कहा। मैने नौकर को साथ लिया और किनारे सब्जी खरीदने चला गया । इसी बीच जहाज खुल गया । 'प्रसादजी' मुझे न देखकर घबड़ा उठे और चालक से जहाज रोक देने के लिए कहा। उनका मुखमण्डल घबराहट से पीला हो रहा था। मेरे अग्रज पुरुषोत्तमदास भी चिल्ला उठे। इतने मे मैने हाथ से पहुंचने का इशारा किया। 'प्रसादजी' ने फिर जहाज रोक देने के लिए चालक से अनुरोध किया और मुझे शीघ्र पहुंच जाने के लिए हाथ से इशारा किया । पहुँचकर मैंने कहा-आप लोग इतने घबड़ा क्यों गये जहाज छूट जाता तो में दूसरे जहाज से चला आता । यहाँ तो सैकड़ो जहाज खड़े है ।' प्रसादजी ने आत्मीयता भरे शब्दों में कहा-'तुम्हें इसका क्या पता है ?' संस्मरण पर्व : २४५