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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५४८

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अर्थव्यवस्था का है, वह आपके पास रहेगा। सजावट और बारात की देखभाल का काम मैने स्वयं लिया है। भोजन आदि की व्यवस्था बड़े भाई हीरालालजी को और अतिथि सत्कार आदि का भार भाई पुरुषोत्तमदासजी लेगे।' मेरी इस व्यवस्था से वे बहुत प्रसन्न हुये और कहा-'बहुत अच्छी व्यवस्था की है तुमने। इसके बाद ही मैने सेफ की चाभी उनके सम्मुख रख दी। प्रथम दिन विवाह का कार्य सम्पन्न हो गया। दूमरे दिन जब भात खिचडी का अवसर आया, तो मेरे अग्रज भाई पुरुषोत्तमहासजी ने मुझसे अलग बुलाकर कहा'देखो, इस विवाह मे मेरे काफी रुपये खर्च हो रहे है, इसलिए खिचडी मे मै पाँच हजार रुपया लूंगा, इसमे कम नहीं' मैने कहा -'भाई साहव आप पांच हजार मांगिये या दस हजार, इसमे मुझे कोई आपत्ति नही है, पर मेरी एक शर्त है, वह यह कि-यदि आपकी मांग परी न हुई तो मै नन्दू को खिचडी न खाने दूंगा। यह सोच कर आप अपनी मांग उपस्थित कीजिएगा' मेरी इस बात को सुनकर वे झल्ला कर बोले- 'खेण्डेराव कहा है, उमे तुलाओ।' प्रसादजी समाा ही बैठे थे, वे वहाँ जा गये। उन्होने कहा-दादा क्या बात है।' भाई साहब कहने लगे-खो तो यह क्या बकवास करता है, हिता है, म नन्दू को सिचडी न खाने दूंगा जब प्रसादजी को पूरी जानकारी हो गई तो उन्होने भाई माहम को ममझाते हुये कहा'यह तो ठीक वह रहा है, दादा आप क्यो नाराज होते है। किसी प्रकार की मांग करना आपको शोभा नहीं देगा।' अब भाई साहब कुछ शान्त हो गये। X X गंगासागर-यात्रा लगभग दो मास के कलकत्ता प्रवास मे प्रसादजी का स्वास्थ्य काफी अन्छा हो गया। मकर-सक्रान्ति का अवसर था। इरा अवसर पर उनकी इच्छा गगासागर और पुरी यात्रा के लिए प्रवल हो उठी। उन्होने मुझमे वहा-'मै इस यात्रा मे गगासागर-दर्शन भी कर तेना चाहता है। मैने कहा- 'भैय्या, यदि आपकी ऐसी इच्छा है तो मै इसके लिए अन्छे से अच्छी व्यवस्था करूंगा। आपको तनिक भी घबटाने की आवश्यकता नहीं। गगागागर-म्नान के कष्टो को सुनकर वे काफी घबडा जाते थे। मै राजा जानकीनाथ ठाकुर के समीप गया। उस गमय गगासागर-यात्रा के लिए उनके जहाज चलते थे। उनके लड़के ने मेरा जच्छा परिचय था। मैंने उनसे एक लाच गरी व्यवस्था के लिए निवेदन किया और उन्हे प्रगादजी का परिचय दिया। उन्होने मेरे लिए एक लाच की व्यवस्था कर दी जिसमे दो नौकाये भी संलग्न थी। मैने आकर 'प्रसाद'जी को 'लाच' सम्बन्धी व्यवस्था बतायी। उन्होने कहाव्यवस्था तो अच्छी है, पर काफी व्ययसाध्य होगी। मैंने कहा-आपने इसकी २४४ : प्रसाद वाङ्मय