पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सामने रखी इस आशा से कि उसमें सुधार कर देंगे और फिर उनसे प्रशंसा मिलेगी। कविता देखकर गम्भीर हो गये पर उसमें सुधार किया बड़े स्नेह से और प्रसन्न होकर पर प्रशंसा रत्ती मात्र नहीं की। कविता यों बनी 'उस निरीह की आकुल आशा निश्वासों में भीषण आह विफल मनोरथ शुष्क भावना आज कर रखी किमकी चाह उक्त कविता तत्कालीन किसी पत्रिका में निकली भी। उन दिनों 'श्री कृष्ण सन्देश' एक हिन्दी साप्ताहिक कलकत्ता से निकलता था जिसके सम्पादक थे स्वर्गीय श्री लक्ष्मीनारायणजी गर्दै। उसी मे सहकारी सम्पादक या अन्य किसी रूप में काम करते थे स्वर्गीय श्री विश्वम्भरनाथ जिज्जा । उमक। होली अंक निकलने जा रहा था। उसके लिए जिज्जाजी ने एक कविता देने को मुझमे कहा । मैने तीन पंक्तियों को एक कविता लिखकर'दी जो मुख पृष्ठ पर बाक्म में छपी। कविता यों थी : 'कहो किससे खेलोगे फाग छिड़ा है कैसा कुंठिन राग धधकती है उर-उर में आग' प्रसादजी मेरी गतिविधि पर सदा दृष्टि रखते थे और मेरे बुजुर्ग कुटुम्बियों से मेरी बाबत सदा जानकारी लेते रहते थे। रक्त कविता जब उनकी दृष्टि में आई तो चितित हुए और इरादतन मुझे बुलाया। कविता 'एक छंद' नाम से निकली थी। व्यंग्य करते हुए बोले 'अब तो खामे कवि बन गये हो, चातुर्य भी आ गया है, खा कमा लोगे उसका भरोसा हो गया है।' व्यवमाय की ओर मैं पूरा ध्यान नहीं दे पाता था जिसमे आमद और खर्च मे संतुलन का अभाव "जिमी था। प्रसादजी को मेरी बावत सारी जानकारी मिला करती थी। इसी काल । 'एक छाया' शीर्षक एक लम्बी भावात्मक कविता मैंने लिखी थी जिसका शोध उन्होंने किया था। वह मासिक पत्रिका 'माधुरी' में छपी थी। इस कविता के निकलने तक मैं व्यवसायपराङ्मुख होने लगा था जिमकी सूचना उन्हें मेरे एक बुजुर्ग कुटुम्बी से मिली। उन्होंने मुझे काशी बुलाया और मधुर डाँट देते हुए समझाया : यह कठोर मार्ग है। मुझे इसकी सजा मिली व अनुभव है। मेरे पिता विरासत मे लम्बी जायदाद और खासा लम्बा लाभप्रद कारोबार छोड़ गये थे जिसको काफी मात्रा मे गँवाकर मैं तो अपना शौक पूरा कर सका पर तुम्हें तो विरासत में पिता से मिला है मात्र एक टोटा सा, पर चाल कारोबार और एक बहुमूल्य उपदेश । उनका उपदेश को मन में रखकर अपने व्यवसाय की ओर ध्यान दो। तुम्ही एक मात्र परिवार के संचालक हो। अपना शौक पूरा करने के लिए परिवार का चिंतन छोड़ बैठोगे तो अन्ततोगत्वा वेदना के भागी तुम्ही संस्मरण पर्व : २४९