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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५५२

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'यह क्या अच्छा नहीं कि औरों को सुनता मैं मौन रहूँ'-प्रसाद एक निकटस्थ आत्मीय होने के कारण प्रसादजी का सानिध्य पाने का सौभाग्य मुझे बचपन से ही प्राप्त था किन्तु होश सम्भालने के बाद १९१८-१९३७ तक प्रायः २० वर्ष तक उनकी मनोगति और उनके व्यक्तित्व को देखने और समझने का तथा उनका अभिभावकत्व पाने का सुयोग बराबर मिलता रहा । मेरे पिताश्री का जब निधन हुआ मैं मात्र १६ वर्ष का था। तभी से वह मेरे. मानस पटल पर एक अभिभावक. अग्रज एवं मित्र के रूप में सदा बने रहे । एक प्रतिष्ठित एवं सम्पन्न परिवार में पैदा होने के कारण उनमे अभिजात्य-गरिमा भरी थी। बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों एवं गुणियों का सदा उनके वहाँ समागम होता रहता था। उनके व्यक्तित्व एवं महिमा से प्रभावित और प्रेरित होकर मुझमें भी कविता करने की भावना जागृत हुई। पर मेरी पारिवारिक स्थिति ऐमी नहीं थी कि कोई भी हितचिन्तक ईमानदारी से कवि बनने को मुझे प्रोत्साहित करता। मैं ही अपने तीन भाइयों मे सबसे बड़ा था और पिताश्री के निधन के बाद मुझ पर परिवार को सम्भालने का भार आ पड़ा था। विरासत में मिला था एक मात्र कारोबार-मिठाई की दूकान का। वाप-दादा के पुण्य कर्मो के कारण दूकान की ख्याति अच्छी थी और मरते समय पिताश्री ने केवल इतना ही मुझे ढाढ़स दिया था कि बेटा जिम लीक पर तुम्हारे बाप दादा चले है उसी लीक पर चलोगे और ग्राहक को लक्ष्मी समझकर सदा ईमानदारी के साथ शुद्ध और वजन भर माल दोगे तो भगवान का वरदहस्त सदा तुम्हारे सिर पर बना रहेगा और कभी अभाव मे न पड़ोगे। ऐसी स्थिति में किसी भी हितचिन्तक से कवि बनने का प्रोत्साहन कैसे मिलता। फिर प्रसादजी जैसे कठोर अभिभावक और परम हितचिन्तक से आन्तरिक प्रोस्माहन पाना तो दुर्लभ ही था। किन्तु मैं जब-तब कुछ पंक्तियाँ उनको मोत्साह सुनाता और उनसे उनमें सुधार पाना चाहता था। मेरी कच्ची उम्र और प्रवल भावना देखकर मुझे ठेम पहुंचाने के बजाय उन्होंने सदा कुछ सुधार ही किया पर भीतर से प्रोत्माहन कभी नही दिया और प्रच्छन्न रूप से सदा विरत ही करते । जब-तव में कलकत्ता मे काशी पहुंच जाता था और अक्सर वे भी मुझे बुला लिया करते थे। ८-१० दिन उन्ही के पास बना रहता । एक वार काशी प्रवास में उनके साथ प्रातः गंगास्नान को दशाश्वमेध घाट गया। जाडे के दिन थे, हम दोनों ही शाल ओढ़े थे। रास्ते मे सर्दी से ठिठुरते वस्त्रविहीन भिखारियों को देख मैने उनसे मादर कहा-'भैया हम लोग शाल ओढ़े है और इनको साधारण वस्त्र भी मअस्सर नहीं'। किशोर उम्र में उदात्त भाव जल्दो जाते हैं । मेरी बात सुनकर वह कुछ गम्भीर हो गये और रोष का भाव उनके चेहरे पर आ गया। उन्होंने इतना ही कहा 'कवि होते जा रहे हो। घर आकर चार पंक्ति की एक कविता उनके २४८: प्रसाद वाङ्मय