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प्रेम काव्य, विरह काव्य समझता था। उसमें मुझे लौकिक प्रेम का साविक प्रकाये दिखाई देता था। हमारे एक सहपाठी ने जो काशी के ही 'ये 'आंसू' की तर्ष पर कुछ पंक्तियां लिखी पी। परन्तु वे कवि के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हुए। बी. ए. की परीक्षा देकर जब मैं घर जाने की तैयारी कर रहा था तब बारबार मन में आता था कि अपने प्रिय कवि प्रसाद के दर्शन कर पाता तो कितना अच्छा होता और एक पावन स्मृति को जोकर रख पाता । प्रसाद जी के पड़ोसी श्री रामनाथ सुमन से मेरा परिचय था। मैंने उनसे प्रसाद जी के दर्शन कराने का निवेदन किया। दिन व समय निश्चित हो गया। मैं निर्धारित दिन प्रातःकाल ही उनके निवास स्थान पर पहुंच गया । वे प्रायः मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनका स्थान प्रसाद जी के आवास के सामने था। प्रसाद जी भी उठकर बाहर खड़े थे । सुमन जी ने उनकी ओर संकेत कर मुझसे पूछा कि क्या मैंने उन्हें कही देखा है ? मैंने कहा-हां माधुरी में उनके दर्शन किये है । फिर वे मुझे प्रसाद जी के घर ले गये मैंने नतमस्तक हो प्रसाद जी को प्रमाण किया । सुमन जी ने कहा कि यह नवयुवक आपने आँसू का कुछ प्रसाद चाहता है । वे सामने अपनी बगिया के चबूतरे पर आसीन हो गए। उन्होंने अपने मकान के सामने एक छोटा सा बगीचा लगाया था। उसमें गुलाब, जूही, बेला, रजनीगंधा, पारिजात आदि फूलों के पेड़ लगे थे और 'प्रसाद' पारिजात के पेड़ के नीचे एक पत्थर के चबूतरे पर बैठते थे। जब वे उस पर वैठ गये, ( यह प्रमिद्धि थी कि कवि उसी चबूतरे पर बैठकर अपनी रचनाएँ दूसरों को मुनाया करते थे ) हम भी उसी के नीचे बैठ गए और सुमन जी ने उनसे कहा कि यह युवक आपका भक्त है, परीक्षा देकर घर जाने की तैयारी कर रहा है पर उसके पूर्व आपके दर्शन करना चाहता था और आपके मुखारविन्द से आँसू की कुछ पंक्तियां सुनना चाहता है । प्रसाद जी सहज भाव से बैठ गए और प्रसाद जरा हो ना के बाद ही आँसू की कुछ पंक्तियां सुनाने को राजी हो गये । सुखासन में बैठे-बैठेही वे गा उठे___ 'इस करूणा कलिस हृदय में, क्यों विकल रागनि बजती ? क्यों हाहाकार स्वरों में; वेदना अमीम गरजती' गा उठे, गाते ही गये-आँसू समाप्त होने तक । कितनी तन्मयता, भाव-मुग्धता उनके बदन पर अंकित थी। उनकी वाणी में मिठास थी। छिपा सा दर्द भी फूटने की चेष्टा करता था। बिदा के समय अपनी दो तीन पुस्तके भी उन्होंने भेंट की। दूरी लेकर गया था पर निकटता लेकर लौटा। प्रसाद जी का मानसिक धरातल सचमुच बहुत ऊंचा है। उनका हृदय रस का खजाना है। मेरी धारणा थी, 'आज' में उनके सम्बन्ध में जो दो चार अप्रिय वाक्य मेरे द्वारा लिखे गए थे, उसका उनके मन पर असर होगा-मैं कह गया। २६२ : प्रसाद वाङ्मय