पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५६७

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मेरे सियोले-नहीं जी, तुमने तो कुछ भी नही लिखा। वे कड़वी से कड़वी आलोचनाएं पी जाते हैं। 'शंकर, जिस तरह काल कूट ?' मैंने कहा-'और क्या तभी तो उन्हें कहते है 'जय शंकर' मित्र बोले और हम हंस पड़े। सन् १९२८ के बाद सन् १९३८ मे फिर मैं काशी गया। उस समय गोवर्द्धन की सराय सूनी थी, शंकर अन्तर्धान हो गये थे। उनका "प्रसाद" बंट चुका था केवल उनकी जयध्वनि मुन पडती थी। आज भी वह सुनाई दे रही है, "कल" भी देगी। संस्मरण पर्व : २६३