सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

मयूर का चिह्न अंकित है। इससे अनुमान किया जाता है कि वे मौर्य-काल के सिक्के हैं। किन्तु इससे भी उनके क्षत्रिय होने का ही प्रमाण मिलता है। हिन्दी 'मुद्राराक्षस' की भूमिका में भारतेन्दुजी लिखते हैं कि-"महानन्द, जो नन्दवंश का था, उससे नौ पुत्र उत्पन्न हुये। बड़ी रानी के आठ और मुरा नाम्नी नापित-कन्या से नवा चन्द्रगुप्त । महानन्द से और उसके मन्त्री शकटार से वैमनस्य हो गया, इस कारण मन्त्री ने चाणक्य द्वारा महानन्द को मरवा डाला और चन्द्रगुप्त को चाणक्य ने राज्य पर बिठाया, जिसकी कथा 'मुद्राराक्षस' में प्रसिद्ध है।"-किन्तु यह भूमिका जिसके आधार पर लिखी हुई है, वह मूल संस्कृत मुद्राराक्षस के टीकाकार का लिखा हुआ उपोद्घात है। भारतेन्दुजी ने उसे भी अविकल ठीक न मानकर 'कथा-सरित्सागर के आधार पर उसका बहुत-सा संशोधन किया है । कहीं-कही उन्होंने कई कथाओं का उलट-फेर भी कर दिया है। जैसे हिरण्यगुप्त के रहस्य के बतलाने पर राजा के फिर शकटार से प्रसन्न होने की जगह विचक्षगा के उत्तर से प्रसन्न होकर शकटार को छोड़ देना तथा चाणक्य के द्वारा अभिचार से मारे जाने की जगह महानन्द का विचक्षणा के दिये हुये विष से मारा जाना इत्यादि । दुण्ढि लिखते है कि-"कलि के आदि मे नन्द नाम का एक राजवंश था। उसमें सर्वार्थसिद्धि मुख्य था। उसकी दो रानियां थी-एक सुनन्दा, दूसरी वृषला मुरा। सुनन्दा को एक मांसपिण्ड और मुरा को मौर्य उत्पन्न हुआ। मौर्य से नो पुत्र उत्पन्न हुये । मन्त्री राक्षस ने उस मांसपिण्ड को जल में नौ टुकड़े करके रक्खा, जिससे नौ पुत्र हुये । सर्वार्थसिद्धि अपने उन नौ लड़कों को राज्य देकर तपस्या करने चला गया। उन नौ नन्दों ने मौर्य और उसके लडके को मार डाला। केवल एक चन्द्रगुप्त प्राण बचाकर भागा; जो चाणक्य की महायता से नन्दों का नाश करके, मगध का राजा बना।" कथा-सरित्सागर के कथापीठ लम्बक में चन्द्रगुप्त के विषय में एक विचित्र कथा है। उसमें लिखा है कि-"नन्द के मर जाने पर इन्द्रदत्त (जो कि उसके पास गुरुदक्षिणा के लिए द्रव्य मांगने गया था) ने अपनी आत्मा को योगबल से राजा के शरीर में डाला, और आप राज्य करने लगा। जब उसने अपने साथी वररुचि को एक करोड़ रुपया देने के लिए कहा, तब मन्त्री शकटार ने, जिराको राजा के मरकर फिर से जी उठने पर पहले ही से शंका थी, विरोध किया। तब उसे योगनन्द राजा ने चिढ़कर कैद कर लिया और वररुचि को अपना मन्त्री बनाया। पोगनन्द बहुत विलासी हुआ, उसने सब राज्य-भार मन्त्री पर छोड़ दिया। उसकी ऐसी दशा देखकर वररुचि ने शकटार को छुड़ाया और दोनों मिलकर राज्य-कार्य करने लगे। एक दिन योगनन्द की रानी के चित्र में उसकी जांघ पर एक तिल बना देने से ५८:प्रसाद वाङ्मय