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यशोमती देख कर ही उसे थवीधर्म की दुहिता मान लेने का प्रयास कर रहे हैं। अस्तु, वद्धनवंश के प्रभाकर के मरते ही नरेन्द्र के उकसाने से मालव के देवगुप ने प्रभाकर के जामाता ग्रहवर्मा से कान्यकुब्ज को छीन लिया और प्रभाकर की दुहिता राज्यश्री को बन्दी बना कर सफलता प्राप्त की। राज्यवर्द्धन ने जब कान्यकुब्ज का उद्धार किया, तो नरेन्द्र ने छलसे उसकी हत्या करा दी। हर्ष अभी एक नवयुवक शासक था। बहुत सम्भव था कि थानेसर ही उलट दिया जाता, परन्तु उसने अतुल पराक्रम से उस विपत्ति का सामना किया और मालव तथा गौड़ के षड्यन्त्र को ध्वस्त कर दिया। घटनाचक्र से वह समस्त उत्तरापथ का महाराजाधिराज बन गया। हर्षवर्धन ने राजनीति को संयम से चलाया। कामरूप, काश्मीर और वलभी के प्रान्तराज्य उसके अनुगत हो गये। दिवाकरमित्र नामक एक साधु ने राज्यश्री के प्राणों की रक्षा की। कहा जाता है, कि हर्षवर्धन ने राज्यश्री के साथ कान्यकुब्ज का संयुक्त शासन किया और इसलिये बहुत दिनों तक वह केवल राजपुत्र उपाधि धारण किये था, किन्तु बाँसखेड़ा के शिलालेख मे वह स्वयं लिखता है-"स्वहस्तोमम महाराजाधिराजश्रीहर्षस्य"। उसका राज्यकाल ६०५ ईसवीय से आरम्भ होकर ६४७ ईसवीय तक चलता है। चीनीयात्री ने तो हर्ष के काषाय लेने का भी उल्लेख किया है, परन्तु सम्भवतः पह भारत की वही प्राचीन प्रथा थी, जिसका वर्णन कालिदास ने विश्वजित याग के बाद सर्वस्वदान के रूप मे किया है-रघु भी सब जीत कर ऐसा ही दान करके अकिंचन हो गये थे, जब कौत्स गुरु-दक्षिणा के लिए गये थे। हर्षवर्द्धन का बौद्धधर्म की ओर अधिक झुकाव होने का कारण-उनकी भगिनी राज्यश्री का बौद्ध दिवाकरमित्र द्वारा बचाया जाना भी हो सकता है। सम्भवतः, धर्म मे वे समन्वयवादी थे, सूर्य, शिव और बुद्ध तीनों देवताओ की प्रतिमाएं आदरणीय थी। प्रधानत हर्षवर्द्धन के हृदय में धर्म का सात्त्विक रूप व्याप्त था, यद्यपि चीनी-यात्री ने उसके महायानप्रेमी होने का अधिक वर्णन किया है। पुलकेशिन चालुक्य ने उनकी विजय को दक्षिण में रोक दिया। वह (हर्षवद्धन) भी उत्तरापथ के साम्राज्य से सन्तुष्ट था। राज्यश्री एक आदर्श राजकुमारी थी। उसने अपना वैधव्य सात्त्विकता से बिताया। अनेक अवसरों पर वह हर्ष के लौहहृदय को कोमल बनाने में कृतकार्य हुई। यद्यपि इस धर्म-समन्वय के कारण, चीनीयात्री सुएमच्वांग और मि-यू-कि के अनुसार, स्वयं हर्षवर्धन के प्राण लेने तक की चेष्टा भी की गयी थी, परन्तु वह राज्यश्री के कोमल स्वभाव की प्रेरणा से, बचता ही रहा। कान्यकुब्ज और प्रयाग ६:प्रसाद वाङ्मय