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प्रहरी स्त्रियां, जो कि मोल ली जाती थीं, राजा के शरीर की सदा रक्षा करती थी। वे रथों, घोड़ों और हाथियों पर राजा के साथ चलती थीं, राजदरबार बहुत आडम्बर से सजा रहता था, जो कि दर्शनीय रहता था, मेगास्थनीज़ इत्यादि ने इसका विवरण विस्तृत रूप से लिखा है ।' पाटलिपुत्र नगर मौर्य-राजधानी होने से बहुत उन्नत अवस्था में था। राजधानी में नगर का शासन-प्रबन्ध भी छः विभागों में विभक्त था और उनके द्वारा पूर्णरूप से नगर का प्रबन्ध होता था। मेगास्थनीज़ लिखता है कि प्रथम विभाग उन कर्मचारियों का था, जो विक्रेय वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण और श्रमजीवियों का वेतन नथा शिल्पियों का शुल्क निर्धारण तथा निरीक्षण करता था। किसी शिल्पी के अंग-भंग करने से वही विभाग उन लोगों को दण्ड देता था। सम्भवतः यह विभाग म्युनिसिपलिटी के बराबर था, जो कि पांच सदस्यों से कार्य-निर्वाह करता था। जिसन लिखा है कि "शूद्रस्य द्विजातिशुश्रूषा" (अर्थशास्त्र) वही यदि चन्द्रगुम शूद्र होता तो उमके लिए 'स्वाध्याय' और 'संध्या' का उपदेश न देता। __अन्तु, जहाँ तक देखा जाता है, चन्द्रगुप्त वैदिक धर्मावलम्बी ही था और यह भी प्रसिद्ध है कि अशोक ने ही बौद्ध धर्म को State Religion बनाया। अर्थशास्त्र में वर्षा होने के लिए इन्द्र की विशेष पूजा का उल्लेख है तथा शिव, स्कन्द, कुवेर इत्यादि की पूजा प्रचलिन थी, इनके देवालय नगर के मध्य में रखना आवश्यक समझा जाता था। -अर्थशास्त्र, २०६-५५ पृ० ___R.C. Dutt का भी मन है कि चन्द्रगुप्त और उमका पुत्र बिन्दुसार बौद्ध नही था। 8. The district possesses special interest, both for Historian and Archaeologist. Patna City has been identified with Pataliputra (See Plibothra of Magastbanes), which is supposed to have been founded six hundred years before the Christian era by Raja Ajatshatru, a contemproary of Gautam the founder of the Buddhist religion. (Imp Gaz of India, Vol XI. p. 24) त्रिकाण्ड शेष और हेमचन्द्र-अभिधान में तथा मुद्राराक्षस में पाटिलपुत्र के दो और नाम पाये जाते है, एक कुसुमपुर और दूसरा पुष्पपुर। चीनी यात्री भी इन नामों से परिचित था। The pilgrimage of Fa Hien में इसका विवरण है। हितोपदेश मे लिखा है कि -"अस्ति भागीरथी तीरे पाटलिपुत्र नाम नगरम् ।" पर ग्रीक लोगों ने उसे गंगा और हिरण्यवाह के तट पर होना लिखा है। इधर मुद्राराक्षस के "शोणं सिन्दूरशोणा मम गजपतयः पास्यन्ति ७४: प्रसाद वाङ्मय