पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/७७

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को अकाल का सामना नहीं करना पड़ता था। कृषक लोग बहुत शान्तिप्रिय होते थे। युद्ध आदि के समय में भी कृषक लोग आनन्द से हल चलाते थे। उत्पन्न हुए अन्न का चतुर्थाश राजकोष में जाता था। खेती की उन्नति की ओर राजा का भी विशेष ध्यान रहता था । कृषक लोग आनन्द में अपना जीवन व्यतीत करते थे। दलदलों में अथवा नदियों के तटस्थ भू-भाग मे, फल-फूल भी बहुतायत से उगते थे और वे सुस्वादु तथा गणदायक होते थे। जानवर भी यहां अनेक प्रकार के यूनानियों ने देखे थे। वे कहते हैं कि चौपाये यहां जितने सुन्दर और बलिष्ठ होते थे, वैसे अन्यत्र नहीं। यहाँ के सुन्दर बैलों को सिकन्दर ने यूनान भी भेजा था। जानवरो मे जंगली और पालतू सब प्रकार के यहाँ मिलते थे। पक्षी भी भिन्न-भिन्न प्रदेशों मे तहत प्रकार के थे, जो अपने घोसलों में बैठकर भारत के मुस्वादु फल खाकर कमनीय कण्ड से उसकी जय मनाते थे। धातु भी यहां प्रायः सब उत्पन्न होते थे। मोना, चांदी, तांबा, लोहा और जस्ता इत्यादि यहां की खानो मे से निकलते मोर उनसे अनेक प्रकार के उपयोगी अस्त्र-शस्त्र, साजआभूषण इत्यादि प्रस्तुत होते थे। शिल्प यहाँ का बहुत उन्नत अवस्था मे था; क्योंकि उसके व्यवमायी सब प्रकार के कर मे मुक्त होते थे। यही नही, उनको राजा से सहायता भी मिलती थी जिससे कि वे स्वछन्द होकर अपना कार्य करें। क्या विधिविडम्बना है उसी भारत के शिल्प की, जहाँ के बनाये आडम्बर तथा शिल्प की वस्तुओं को देखकर यूनानियों ने कहा था 'भारत की राजधानी पाटलीपुत्र को देखकर फारस की राजधानी कुछ भी नहीं प्रतीत होती।' ____ शिल्पकार राज-कर से मुक्त होने के कारण राजा और प्रजा दोनों के हितकारी यन्त्र बनता था; जिममे कार्यो में मुगमता होती थी। प्लिनी कहना है कि 'भारतवर्ष में मनुष्य पांच वर्ग के है-एक, जो लोग राजसभा में कार्य करते है, दूसरे सिपाही, तीसरे व्यापारी, चौथे कृषक और एक पांचवा वर्ग भी है जो कि दार्शनिक कहलाता है।' पहले वर्ग के लोग सम्भवतः ब्राह्मण थे जो कि नीतिज्ञ होकर राजसभा में धर्माधिकार का कार्य करते थे । और सिपाही लोग अवश्य क्षत्रिय ही थे । व्यापारियो का वणिक सम्प्रदाय था। कृषक लोग शूद्र अथवा दास थे; पर वह दासत्व सुसभ्य लोगों की गुलामी नहीं थी। पांचवा वर्ग उन ब्राह्मणों का था, जो संसार मे एक प्रकार से अलग होकर ईश्वगराधना में अपना दिन विताते तथा सदुपदेश देकर संसारी लोगों की आनन्दित करते थे। वे स्वयं यज्ञ करते थे और दूसरे का यज्ञ कराते थे; सम्भवतः वे ही मनुष्यों मौर्यवंश-चन्द्रगुप्त : ७७