पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/८८

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वधान मे हुई थी। उसमे, मद्रास विश्वग्द्यिालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा. शकर राज नायडू ने अपने व्याख्यान में एक आधारिक महत्त्व का प्रश्न उठाया था कि, "साहित्य स्रष्टा युग प्रवर्तक हुआ करते हैं अथवा सम्पादक-समीक्षक ? यद्यपि द्विवेदीजी ने भी काव्यरचना के कुछ प्रयास किये थे जिनका मूल्यांकन आचार्य शुक्ल ने भलीभांति किया और उन्हे गद्यात्मकतया प्रतिष्ठित पद्य की संज्ञा दी है। फिर, हिन्दी के नवोत्थान मे भारतेन्दु युग के बाद एक अवष्टम्भ पार कर प्रसाद-युग ही आता है-तब द्विवेदी युग कैसा ?" इम परिशिष्ट में संकलित रचनाओ मे भावी प्रसाद वाङ्मय के पुष्ट आधारों को द्विवेदीजी नही देख पाये। आज उनकी 'अस्वीकृति के-क्यों और कैसे का मीमांसन प्रसाद-वाङ्मय के सन्दर्भ में महत्वहीन हो गया है। -सम्पादक ८८: प्रमाद वाङ्मय