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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/८९

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प्रभात चिन्ता अन्धकार हट रहा जगत जागत हुआ। रजनी का भी स्तब्ध भाव अपसृत हुआ ॥ नीलाकाश प्रशान्त स्वच्छ होने लगा। दक्षिण-पवन-स्पर्श मुखद होने लगा। कतान्त निशा जो जगी रात भर मोद में । चली लेटने अहा नींद की गोद में ॥ ऊषा वा पट ओढ़ लिया अति चाव से। अन्तरिक्ष में सोने को शुचि भाव से ॥ किन्तु जीव को जगा दिए। कल-नाद से। जो तन्दा सुख भोग रहा आलाद से ॥ मीठा मादक नशा व्याप्त होने लगा। इन बातों का ध्यान उसे होने लगा। "दूर छोड़ कर देश किस जगह आ गया। यात्री का पद कहो कहाँ से पा गया। नव विस्मृति के साथ व्यथा नव हो गई। नये नये है साथ राह भी है नई॥ छाया सा अस्पष्ट चित्र दिखला दिया। भ्रम-मय अनुसन्धान अहो सिखला दिया। सुख समुद्र के बीच प्रेम का द्वीप था। चन्द्र-देव का रजत-बिम्ब ही दीप था । पवन सुरभि आनन्द पूर्ण सुखशीत था। नव वसन्त का राग, शान्ति संगीत था । चिर वसन्तमय काम्य कुसुम के कुंज थे। जिनमें विचरणशील रसिक अलि-पंज थे। प्रभात चिता : ८९