पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९४

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बोले तब हरिदास-स्वामि मैं सेवक ही 'हूँ, परामर्श के योग्य नाथ मैं कभी नहीं हैं। किन्तु कहेगा वही , समझ में जो आवेगा, कहने का अधिकार दास जब यह पावेगा। स्वामिन्, ध्यान सदा रहे झाला है उस रक्त का, जिसमें रहता है मिला पद अनुपम प्रभु भक्त का॥ क्षत्रिय का है धर्म युद्ध में लड़ कर मरना, देश धर्म के लिए कभी नहिं पीछे टरना। किया आपने उसे जहाँ तक निज वश का था, दिया न पीछे पैर 7 कोई टाल सका था। किन्तु आत्म हत्या नहीं क्षात्र कुलोचित धर्म है, सहता है शर को वही जिसके उर पर वर्म है। राणा ने तब कहा तुम्हारी क्या अनुमति है, करै यवन से सन्धि सूर्य कुल को यह गति है। झाला था वह बीर जिन्होंने प्रण दिया था, राज छत्र बस मृत्यु हेतही छीन लिया था। उन झाला के वंशधर होकर क्या कहना चहो? देकर निज सर्वस्व को बैठे मुंह तकते रहो। भर आये अभिमान अश्र से राणा के दग, प्यासे जल के लगे तैरने सर में ज्यों मृग। कहा न अब इस योग्य रहा जो मैं कुछ कहता, नहीं भला इन बातों को मैं कैसे सहता। किन्तु और बल है नहीं क्षत जर्जर इस हृदय में, दया लवण जो सह सके ऐसे भीषण समय में । दुःखित हो हरिदास सजल दृग होकर बोले, "वीर कभी नहिं हृदय ग्रन्थि को अपनी खोले ईश स्वयं कर्ता है सब इच्छा उसकी है उसमें बाधा देय भला हिम्मत किसकी है समयासमय विचार का निर्धारित कर कार्य को राजन दृढ़ हो देखिए नावी गति अनिवार्य को॥ ९४: प्रसाद वाङ्मय