पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९३

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हुआ क्षोभ हिय बीच सोच कर्तव्य रहे थे, अमरसिंह का दृश्य लोग सब देख रहे थे। हृदय-सिन्धु में घोर घात-प्रतिघात हुआ है, हिला मेरु मन प्रबल, महा भूकम्प हुआ है। कौन कर्म कर्तव्य है ऐसे स्थल पर वीर को, हुई शोचना हृदय में अमरसिंह से धीर को॥ खुर्रम ने तब कहा 'आप क्यों नहीं मानते क्या सत्यव्रत लोग आपको नहीं जानते जहाँगीर ने स्वयं आपका गौरव माना और सन्धि करना ही अपने मन में ठाना इस अच्छे ही कार्य के करने का अनुरोध कर, भेजा शाहंशाह ने पत्र एक अविरोध • कर ।। इतने में इक अश्व वेग से दौड़ा आया, अपन आरोही को राणा तक पहुंचाया। राजपूत था प्रथित वंश का वह भी झाला, खुली हुई तलवार और कर में था भाला। महा-विपद में चतुर की बुद्धि प्रकट होती यथा, स्वमि-भक्त हरिदास भी पहुंचे आकस्मिक तथा ।। राणा को जब यवन सैन्य में उसने देखा, झाला के कर बीच हुई असि विद्यल्लेखा। अमरसिंह ने ज्योही अपना हाथ उठाया, खला हआ वह खड़ग सहित कर रुकता पाया। देख सिकन्दर की भुजा रुकता या जहाज है, अथवा होता शान्त ज्यों मन्त्र मुग्ध फणिराज है। राणा ने तब कहा शत्रु जब लड़े न सन्मुख, उस पर फिर तलवार चलाने में है क्या मुख मुझे अकेला देख, युद्ध में संकोचित हो शस्त्र न खींची हाथ खीचकर, अपराजित हो रण से होते हैं विमुख वह न इन्हें स्वीकार है, कहते “सन्धि सुधार लो" फिर क्या उचित विचार है । महाराणा अमर सिंह : ९३