पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/९६

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किन्तु विलासी अमर न करके ध्यान देश का दर्पण देखा चित्र भूल कर वीर वेश का समय बिताया व्यर्थ प्रजा की ओर न देखा ऐसा पामर भूप हुआ तो क्या फिर लेखा इस कारण ऐसी दशा उसको यों सहनी पड़ी सच है लोहा भी नरम आंच न सह सकता कड़ी। सूर्य वंश का भार तुम्हारे अब ऊपर है शेष सदश हो रहो, डगो नहि, क्या भू पर है हिन्दु सूर्य ने पुत्र कर्ण को निज हाथों से मुकुट पिन्हाया जड़ा हुआ मणि गुण गाथों से आप पहन काषाय पट सन्ध्याऽरुण शोभित हुए राज भवन आकाश से राणा अन्तहित हुए। -जयशंकर 'प्रसाद' १. इस कविता में राणा शब्द को सरस्वती के सम्पादक महोदय ने राना शब्द से संशोधित किया है। 'र' का योग 'ण' से होता है न से नहीं, जैसे अनव नहीं, अर्णव प्रयुक्त होता है। कदाचित् रानी का पुलिंग वाची राना मानते यह संशोधन किया गया किन्तु राजस्थान राणी कहते है रानी नहीं। ९६ प्रमाद वाङ्मय