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पृष्ठ:प्राचीन चिह्न.djvu/९१

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श्रीरङ्गपत्तम

बहुत दिन तक भजन-पूजन किया था। एशियाटिक सोसायटी के जरनल के आठवें खण्ड में अध्यापक डौसन ने, एक तामील लेख के आधार पर, लिखा है कि ८६४ ईसवी में त्रिमल्लयान नामक एक पुरुष ने इस मन्दिर को बनवाकर श्रारङ्ग की मूर्ति इसमे स्थापित की तब से इस जगह का नाम श्रीरङ्गपत्तन हुआ।

— ११३३ ईसवी में रामानुजाचार्य को चोलराज ने बहुत तङ्ग किया। तब वे वहाँ से माइसोर को चले आये। माइसोर मे वल्लाल-वंश के जैन मतानुयायी विष्णुवर्द्धन नामक राजा को उन्होंने वैष्णव बनाया। उस राजा ने रामानुज को आठ गाँव दिये, उनमे से श्रीरङ्गपत्तन भी एक था।

१४५४ ईसवी मे हेबर तिमाना नामक सूबेदार ने विजयनगर के राजा से श्रीरङ्गपत्तन को ले लिया और वहाँ एक किला बनवाया । उसने, पास ही कलशवाड़ी स्थान के १०१ जैन-मन्दिरों को तोड़कर उनके ईंट-पत्थर से श्रीरङ्ग के मन्दिर को और भी बढ़ाया। हेबर तिमाना के अनन्तर और कई सूबेदार श्रीरङ्गपत्तन में हुए । अन्तिम सूबेदार का नाम त्रिमल्लराज था। १६१० ईसवी मे उसने श्रीरङ्गपत्तन का अधिकार माइसोर के बड़यार राजा को दे दिया। तब से यह स्थान माइसोर की राजधानी हुआ। माइसोर के नरेशों का प्रभुत्व जब क्षीण हुआ तब हैदर अली और टीपू ने इसे अपनी राजधानी बनाया। ४ मई १७६६ ईसवी को अँगरेज़ों ने