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प्राचीन चिह्न


होकर वह बहती है वहाँ की भूमि विशेष करके पथरीली है। कही-कही पर तो बीच मे बड़ी-बड़ी चट्टाने आ गई हैं। इस- लिए उसके वेग, उसके नाद और उसके प्रवाह ने और भी भयङ्कर रूप धारण किया है।

शिवसमुद्रम् नामक टापू तीन मील लम्बा और दो मील चौड़ा है। उसके एक तरफ़ कावेरी की एक और दूसरी तरफ़ दूसरी धारा है। जहाँ से उसकी दो धाराये होती हैं वहाँ से लेकर उनके सङ्गम की जगह तक का अन्तर ३०० फुट है। जहाँ ये दो धाराये पृथक हुई हैं वहाँ से कुछ दूर पर प्रपात है। एक प्रपात पश्चिमी धारा का है, दूसरा दक्षिणी धारा का। प्रपात की जगह पर्वत की उँचाई २०० फुट है। इसी उँचाई से कावेरी की धाराये धड़ाधड़ नीचे गिरती हैं। वर्षा ऋतु में इस नदी की धाराये ¾ मील चौड़ी हो जाती हैं। उस समय पानी की इतनी चौड़ी दो धारायें २०० फुट ऊँचे से प्रलय-काल का सा गर्जन करती हुई नीचे आती हैं। जहाँ पर दक्षिणी धारा गिरती है वहाँ घोड़े की नाल के आकार का एक पातालगामी खड्डं है। उसके भीतर वह धारां हाहाकार करती हुई प्रवेश कर जाती है। वहाँ से वह फिर निकलती है और एक बहुत तग पहाडी रास्ते से होकर कोई ३० फुट की उँचाई से दुबारा एक अन्य खड्डं में गिरती है। कुछ दूर में दोनो धाराये फिर मिल जाती हैं और एक रूप होकर बड़े वेग से पूर्व की ओर जाती हैं।