प्राचीन पंडित और कवि लिखकर इन पाँचों के समाहार कानाम "एस्कृत कविपंचक" रक्खा है। शास्त्री महाशय ने भवभूति को छोड़कर शेष चार कवियों के समय का निरूपण भी यथाशक्य किया है और उनके विषय में, जहाँ तक संभव था, गवेषणा भी की है। परंतु भवभूति के समय के विषय में उन्होंने बहुत ही कम लिया है। उनके कथन का आशय यह है-केवल मृच्छकटिक, प्रबोधचंद्रोदय, नागानद इत्यादि नाटकों में और दशकुमारचरित इत्यादि प्रथों में उस समय के जनसमूह की स्थिति का कुछ परिचय मिलता है। इसलिये भवभूति को कालिदास का समसामयिक मानने की अपेक्षा जिस समय ये ग्रंथ निर्मित हुए है उस समय के आसपास उसका अस्तित्व स्वीकार करना विशेष युक्तिसगत है।
विष्णु शास्त्री ने जिनका नाम दिया है वे प्राय सातची शताब्दी के ग्रंथ है। जैसे इन ग्रंथों में दीर्घ समासों की प्रचुरता है, वैसे ही भवभूति के नाटकों में भी है। जैसे इनमें चौद्ध-धर्मावलंबियों के चरित का कहीं-कहीं चित्र सींचा गया है, वैसे ही भवभूति के मालतीमाधव में भी खींचा गया है। इसीलिये विष्णु शास्त्री ने शूद्रफ, कृष्ण मिश्र, वाण और दही के समय के सन्निकट भवभूति का होना अनुमान दिया है। इतना ही लिखकर वे चुप हो गए है, भवभूति के समय का विशेष निरूपण उन्होंने नहीं किया।